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इन सातो नयों का द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिक नय में समावेश होता है । ये पूर्वोक्त नय परस्पर विरुद्ध रहनेपर भी मिलकर ही जैनदर्शन का सेवन करते है । इसमें दृष्टान्त यह है कि जैसे संग्राम की युक्ति से पराजित समग्र सामन्त राजा परस्पर विरुद्ध रहनेपर भी एकत्रित होकर चक्रवर्ती राजा की सेवा करते हैं ।
इनका विस्तारपूर्वक वर्णन नयचक्रसार और स्याद्वादरत्नाकर के सातवें परिच्छेद आदि में है; जिज्ञासु को चहाँ देखलेना चाहिये ।
पदार्थों के यथावस्थित स्वरूप को पूर्वोक्त प्रमाण और नय द्वारा जाननेवाला पुरुष, जैनशास्त्र में श्रद्धावान् माना गया है। श्रद्धा, रुचि या सम्यक्त्व ये पर्यायवाची शब्द हैं। सम्यक्त्ववान् जीव धर्म का अधिकारी होता है। धर्म के दो विभाग हैं; एक साधुधर्म और दूसरा गृहस्थधर्म | साधुधर्म दश प्रकार का माना गया है:
जैनस्तोत्रसंग्रह प्रथम भाग के ७० पृष्ठ में लिखा है । सर्वे नया अपि विरोधभृतो मिथस्ते संभूय साधुसमयं भगवन् ! भजन्ते । भूपा इव प्रतिभटा भुवि सार्वभौमपादाम्बुजं प्रधनयुक्तिपराजिता द्राक् ॥ २२ ॥