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परोक्ष ज्ञान में पांच भेद माने जाते हैं । १ प्रत्यभिज्ञान, २ स्मरण, ३ तर्क, ४ अनुमान, ५ आगम । इसमें प्रत्यभिज्ञान, स्मरण, तर्क इन तीनों को कोई २ प्रमाण में दाखिल नहीं करते; लेकिन हमारे जैनशास्त्रकारों ने इसपर प्रबल युक्ति दिखाकर अति उत्तम रीति से विवेचना की है; किन्तु यहाॅ समय के अति संकुचित होने से हम उसे कह नही सकते ।
उपमान प्रमाण का अन्तर्भाव, प्रत्यभिज्ञान में किया गया है ।
नय वह पदार्थ है, जिसका संक्षिप्त लक्षण हम ऊपर कह चुके हैं; उसका शास्त्रकारों ने इसरीति से लक्षण किया है:
'नीयते येन श्रुताख्यप्रमाणविपयीकृतस्यार्थस्याश तदितराशौ - दासीन्यत स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नय. '
अर्थात् प्रत्यक्षादि प्रमाणों से निश्चित किये अर्थ के अंश अथवा बहुत से अंशों को ग्रहण करे और बाकी बचे अंशों में उदासीन रहे, याने इतर का निषेध न करे, ऐसा, वक्ता का अभिप्रायविशेष, 'नय' कहलाता है । यदि इतर अंश का उदासीन न होकर निषेध ही करे, तो नयाभास कहा जायगा ।