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(११) अन्तःकरण की तरह व्यवहित (ढके हुए) पदार्थ के प्रकाशक होने से चक्षुरिन्द्रिय को अप्राप्यकारी मानाजाता है
और जो अप्राप्यकारी नहीं है वह व्यवहित का प्रकाशक भी नहीं है, जैसे जिह्वाइन्द्रिय । यहां पर यदि ऐसी शङ्का उत्थित हो कि चक्षुरिन्द्रिय व्यवहित पदार्थ की प्रकाशक कैसे है ? क्योंकि वृक्षादि से व्यवहित पदार्थ को तो प्रकाश नहीं करती, इसलिये यह सिद्धान्त ठीक नहीं है। इस पर जैनशास्त्रकारों का यह समाधान है कि कॉच, विमल जल और स्फटिकरत्न की दीवाल के व्यवधान रहनेपर भी चक्षुरिन्द्रिय से वस्तु का ज्ञान अवश्य होता है। परन्तु योग्यता न होने से वृक्षादि से व्यवहित पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं होता। यदि अथ द्रुमादिव्यवधानभाजः प्रकाशकत्वं ददृशे न दृष्टौ । ततोऽप्ययं हेतुरसिद्धतायां धौरेयभावं विभराम्वभूव ।।६९॥ एतन्नयुकं शतकोटिकाचस्वच्छोदकस्फाटिकभित्तिमुख्यैः। पदार्थपुळे व्यवधानमाजि संजायते किं नयनान्न संवित्॥७॥ और पृष्ठ ९२ में:तस्थौ स्थेमा तदस्मिन् व्यवधिमदमुना प्रेक्ष्यते येन सर्व
तत्सिद्धा नेत्रबुद्धिव्यवधिपरिगतस्यापि भावस्य सम्यक। कुड्यावष्टब्धवुद्धिर्भवति किमु न चेन्नेहशी योग्यताऽस्य
प्राप्तस्यापि प्रकाशे प्रभवति न कथं लोचनाइन्धबुद्धि.?|७|| किंवा न प्रतिभासते शशधरे कर्मापि तद्रूपवत् ? दूराच्चविलसत् तदस्य हृदये लक्ष्येत किं लाञ्छनम् ॥ तस्माच्चक्षुषि योग्यतैव शरणं साक्षी च नः प्रत्ययस्तत् तर्कप्रगुण! प्रतीहि नयनेष्वप्राप्यधीकर्तृताम्॥७६॥