Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Yashovijay Upadhyay Jain Granthamala Bhavnagar
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 4
________________ के सिवाय और क्या कहा जासकता है लेकिन फिरभी भारतभूमि के अभ्युदय की अन्तःकरण से इच्छाकरनेवाले पुरुपसिंहों की सहायता में अपना कल्याण समझकर किञ्चिन्मात्र (थोड़ासा) जैनतत्व आपलोगों के सामने उपस्थित करता हूँ जैन सिद्धान्त में चार अनुयोग (कथन) है। १ द्रव्यानुयोग, २ गणितानुयोग, ३ चरणकरणानुयोग ४ धर्मकथानुयोग । इन चारों अनुयोगों की आवश्यकता पाणियों के कल्याणार्थ तीर्थंकरों ने कही है। (१) द्रव्यानुयोग याने द्रव्य की व्याख्या। . द्रव्य के छः भेद हैं, जिनका जैनशास्त्र में पड् द्रव्य के नाम से व्यवहार होता है । उनके नाम ये हैं:-जीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल। १ जीवास्तिकाय का लक्षण यह है:"यः कर्ता कर्मभेदानां भोक्ता कर्मफलस्य च । संसर्ता परिनिर्वातास ह्यात्मा नान्यलक्षणः" ॥१॥ कों को करनेवाला, कर्म के फल को भोगनेवाला, किये हुए कर्म के अनुसार शुभाशुभ गति में जानेवाला और सम्यम्

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