Book Title: Jain Tattva Digdarshan
Author(s): Yashovijay Upadhyay Jain Granthamala Bhavnagar
Publisher: Yashovijay Jain Granthmala

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Page 3
________________ जैनलत्य दिगदर्शन. स्याद्वादो वर्तते यस्मिन् पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्यपीडनं किञ्चित् जैनधर्मः स उच्यते ॥११॥ सज्जनमहाशय । जैनदर्शन की अनेकान्तवाद, स्याद्वादत, आर्हतदर्शन आदि नामों से संसार में प्रसिद्धि है और इन्हीं नामों से पड्दर्शनानुयायी लोग व्यवहार में लाते हैं। उस जैनदर्शन का तत्त्व सामान्य रीति से दिगदर्शनमात्र यहाँ पर कराया जासकता है क्योंकि कहना विशेष है और समय बहुतही थोड़ा है। जब कि जैनधर्माचार्यों ने, तीक्ष्णबुद्धि और दीर्घायु, तथा समस्त शास्त्र में प्रवीण होनेपर भी स्पष्ट रूप से कहा कि हमलोग स्वल्प वुद्धिवाले, स्वल्प आयु होनेके कारण; अनन्त, अतिगम्भीरस्वरूप ज्ञेय (तत्व) को यथार्थ नहीं कह सकते'; तो अत्यन्तअल्पबुद्धिवाले अत्यल्प समय में अतिगहन विषय की मीमांसा करना हमलोगों का साहसमात्र

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