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(५०) थपियवाउज्माणं संज्झानिघाघरताय वारुणं वामाहिंदंवा अन्नयरं पसत्थ मुप्पायं पासित्ता तेणं साहिङाइ जहा सुबुष्टि नविस्तर सेतं अणागय कालग्गहणं ॥
भापार्थ:-( पूर्वपक्ष) अनुमान प्रमाणके द्वारा अनागत (भविष्यत) कालके पदार्थोंका वोध किस प्रकारसे हो सकता है ? ( उत्तरपक्ष ) जैसे आकाश अत्यन्त निर्मल है, संपूर्ण पर्वत कृष्ण वर्णताको प्राप्त हो रहा है अर्थात् पर्वत रजादिकरके युक्त नहीं है, और विद्युत् (विजुली) के साथ ही मेघ है अर्थात् यदि दृष्टि होती है तब साथ ही विजुली होती है, वर्षाके अनुकुल ही वायु है, और सन्ध्या स्निग्ध है, वारुणी मंडलके नक्षत्रोंमें बहुत ही सुंदर उत्पात उत्पन्न हुए हैं, क्या चन्द्रादिका योग माहिन्द्र मंडलके नक्षत्रोंके साथ हो रहा है, इसी प्रकार अन्य भी सुंदर उत्पातोंको देखकर और अनुमान प्रमाणके आअय होकर कह सक्ते हैं कि सुदृष्टि होनेके चिन्ह दीखते हैं अर्थात् सुदृष्टी होगी । यह भविष्यत कालके पदार्थों के ज्ञान होनेवाला अनुमाण प्रमाण है क्योंकि इनके द्वारा अनागत कालके प्रदार्थों का बोध हो जाता है ॥