Book Title: Jain Siddhanta
Author(s): Atmaram Upadhyaya
Publisher: Jain Sabha Lahor Punjab

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Page 186
________________ ( १७८ ) जो त्यागने योग्य कर्म हैं उनका परित्याग करना, जो जानने योग्य हैं उनको सम्यक् प्रकारसे जानना, अपितु जो आदरणे योग्य हैं उनको आसेवन करना तथा सामान्य पुरुषोंमें विशेयज्ञ होना, फिर ज्ञानको प्रकाशमें लाना जिस करके लोग अज्ञान दशामें ही पड़े न रहें || १७ वट्टाणुग्गो - वृद्धानुगत होना अर्थात् जो वृद्ध सुंदर कार्य करते आये हैं उनके ही अनुयायी रहना, जैसे कि - सप्त व्यसनोंका परित्याग वृडोने किया था वही परम्पराय कुलमें चली आती होवे तो उसको उल्लंघन न करना तथा वृद्ध उभय काल प्रतिक्रमणादि क्रियायें करते हैं उनको उसी प्रकार आचरण कर लेना, जैसे वृद्धोंने अनेक प्रकारसे जीवों की रक्षा की सो उसी प्रकार आप भी जीवदयाका प्रचार करना अर्थात् धार्मिक मर्यादा जो वृद्धोंने बांघी हुई हैं उसको अतिक्रम न करना ॥ १८ विणियो - विनयवान् होना क्योंकि विनयसे ही सर्व कार्य सिद्ध होते हैं, 'विनय ही धर्मका मुख्याङ्ग है, विनयसे ही सर्व सुख उपलब्ध हो जाते हैं, विनय करनेवाले आत्मा सबको प्रिय लगते हैं, विनयवानको धर्म भी प्राप्त हो जाता है, इस लिये यथायोग्य सर्वकी विनय करना चाहिये ||

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