Book Title: Jain Siddhanta
Author(s): Atmaram Upadhyaya
Publisher: Jain Sabha Lahor Punjab

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Page 194
________________ (१८६) को सहन न करता किन्तु अब वही उपाय किया जाये जिसके द्वारा सकाम निर्जरा होकर मुक्तिकी प्राप्ति होवे ॥ लोकस्वभाव भावना ॥ लोकके स्वरूपको अनुप्रेक्षण करना जैसेकि यह लोग अनादि अनंत है और इसमें पुद्गल द्रव्यकी पर्याय सादि सातन्ता सिद्ध करती है और इसमें तीन लोग कहे जाते हैं जैसेकि मनुष्यलोक स्वर्गलोक पाताललोक नृत्य करते पुरुषके संस्थानमें हैं, इसमें असंख्यात द्वीप समुद्र है, अधोलोकमें सप्त नरक स्थान हैं तथा भवनपति व्यन्तर देवोंके भी स्थान हैं, उपरि ६ स्वर्ग हैं ईषत् प्रभा पृथिवी है सो ऐसे लोगों शुचीके अग्रभाग मात्र भी स्थान नहीं रहा कि जिसमें जीवने अनंत चार जन्म मरण न किये हो, अर्थात् जन्म मरण करके इस संसारको जीवने पूर्ण कर दिया है किंतु शोक है फिर भी इस जीवकी संसारसे प्ति न हुई, अपितु विषयके मागमें लगा हुआ है । इस लिये लोकके स्वरूपको ज्ञात करके संसारसे निर्दृत्त होना चाहिये. वे ही लोकस्वभाव भावना है ॥ धर्म भावना ॥ इस संसारचक्रमें जीवने अनंत जन्म मरण नाना प्रकारकी योनियों में किये हैं किन्तु यदि मनुष्य भव प्राप्त हो

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