Book Title: Jain Siddhanta
Author(s): Atmaram Upadhyaya
Publisher: Jain Sabha Lahor Punjab

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Page 196
________________ ( १८८ ) है, अवधका बांधव है, दुःखियोंकी रक्षा करनेवाला है, अमित्रोंवालोका मित्र है, सर्वकी रक्षा करनेवाला है, धर्मके प्रभाचसे सर्व काम ठीक हो रहे हैं तथा धर्म ही यक्ष, राक्षस, सर्प, हाथी, सिंह, व्याघ्र, इनसे रक्षा करता है अर्थात् अनेक कष्टोंसे बचानेवाला एक धर्म ही है । इस लिये पूर्ण सामग्री के मिलने 'पर धर्ममें आलस्य कदापि न करना चाहिये । हे जीव ! तेरेको उक्त सामग्री पूर्णता से प्राप्त है इस लिये तू अब धर्म करनेमें प्रमाद न कर | यह समय यदि व्यतीत हो गया तो फिर मिलना असंभव है । इस प्रकारके भावोंको धर्म भावना कहते हैं ॥ . बोधबीज भावना ॥ संसार रूपी अर्णवमें जीवोंको सर्व प्रकारको ऋद्धियें प्राप्त हो जाती है किन्तु बोधबीजका मिलना बहुत ही कठिन है अर्थात् सम्यक्त्वा मिलना परम दुष्कर है । इस लिये पूर्वोक्त सामग्रियें मिलने पर सम्यक्त्वको अवश्य ही धारण करना चाहिये, अर्थात् आत्मस्वरूपको अवश्य ही जानना चाहिये । सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यग् चारित्रके द्वारा शुद्ध देव गुरु धर्मकी निष्ठा करके आत्मस्वरूपको पूर्ण प्रकारसे ज्ञात करके सम्यग् चारित्रको धारण करना चाहिये क्योंकि संसारमें माता पिता भगिनी भ्राता भार्या पुत्र धन धान्य सर्व प्रकार के

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