Book Title: Jain Siddhanta
Author(s): Atmaram Upadhyaya
Publisher: Jain Sabha Lahor Punjab

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Page 199
________________ जीवोंको सुमार्गमें लगानेवाली हैं और सत्यपथकी दर्शक हैं। इनका अभ्यास माणी मात्रको करना चाहिये क्योंकि यह संसार अनित्य है, परलोकमें अवश्य ही गमन करना है, माता पिता भायर्यादि सब ही रुदन करते हुए रह जाते हैं आरै फिर उसका अग्नि संस्कार कर देते हैं, और फिर जो कुछ उसका द्रव्य होता है वे सब लोग उसका विभाग कर लेते हैं किन्तु उसने जो कर्म किये थे वे उन्ही काँको लेकर परलोकको पहोंच जाता है और उन्ही फर्मों के अनुसार दुःख सुख रूप फलको भोगता है, इस लिये जब मनुष्य भव प्राप्त हो गया है फिर जाति आर्य, कुल आर्य, क्षेत्र आर्य, कर्म आर्य,भाषा आर्य,शिल्पार्य जब इतने गुण आयताके भी प्राप्त हो गये फिर ज्ञानार्य, दर्शनार्य चारित्रार्य, अवश्य ही बनना चाहिये । तत्त्वमार्ग के पूर्ण वेत्ता होकर 'परोपकारियोंके अग्रणी बनना चाहिये और सत्य मार्गके द्वारा सत्य पदार्थों का पूर्ण प्रकाश करना चाहिये। फिर सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन, सम्यग् चारित्रसे स्वआस्माको विभूषित करके मोक्षरूपी लक्ष्मीकी प्राप्ति होवे । फिर 'सिद्धपद जो सादि अनंत युक्त पदवाला है उसको प्राप्त होकर अजर अमर सिद्ध बुद्ध ऐसे करना चाहिये । 'अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतमुख, अनंतववलवीर्य युक्त होकर

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