Book Title: Jain Siddhanta
Author(s): Atmaram Upadhyaya
Publisher: Jain Sabha Lahor Punjab

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Page 190
________________ ( १८२ ) संसार नावना ॥ संसार भावना उसका नाम है जो इस प्रकारसे विचार करता है कि यही आत्मा अनंतवार एक योनिमें जन्म मरण कर चुका है अपितु इतना ही नही किन्तु प्रत्येक २ जीवके साथ सर्व प्रकारसे सम्बन्ध भी हो चुके हैं, किन्तु शोक है फिर यह जीव धर्मके मार्गमें प्रवेश नहीं करता। अहो! संसारकी कैसी विचित्रता है कि पुत्र मृत्यु होकर पिता बन जाता है और पिता मरकर पुत्र होता है । इस प्रकारसे भी परिवर्तन होनेपर इस जीवने सम्यग् ज्ञानादिको न सेवन किया जिसके द्वारा इसकी मुक्ति हो जाती॥ एकत्व नावना॥ फिर इस प्रकारसे अनुप्रेक्षण. करे कि एकले ही जीव मृत्यु होते हैं और प्रत्येक २ ही जन्म धारण करते हैं किन्तु कोई भी किसीके साथ आता नही और न कोई किसी के साथ ही जाता है। केवल धर्म ही अपना है जो सदैवकाल जीवके साथ ही रहता है अथवा मेरा निज आत्मा ही है इसके भिन्न न कोई मेरा है और न मैं किसीका हूं। यदि मैं किसी प्रकारके दुःखोंसे पीड़ित होता हूं तो मेरे सम्बन्धी उससे मुजे मुक्त नहीं

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