Book Title: Jain Siddhanta
Author(s): Atmaram Upadhyaya
Publisher: Jain Sabha Lahor Punjab

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Page 188
________________ ( १८०) २१ लदलक्खो-लब्धलक्षी होवे-अर्थात् उचित समयानुसार दान देनेवाला जैसे कि अभयदान, सुपात्र दान, शास्त्रः दान, ओषधि दान, इत्यादि दानाके अनेक भेद है किन्तु देशकालानुसार दानके द्वारा धर्मकी वृद्धि करनेवाला होवे, जैसे कि जीव (अभयदान) दान सर्व दानोंमें श्रेष्ठ है, यथागमे (दाणाण सेठं अभयं पयाणं) अर्थात् दानोंमें अभयदान परम श्रेष्ठ है । सो सूत्रानुसार दान करनेवाला होवे और दानके द्वाग जिन धर्म की उन्नति हो सक्ति है, दानसे ही जीव यश कर्मको प्राप्त हो जाते हैं । सो इस लिये श्रुत दान अवश्य ही करना चाहिये । फिर द्वादश भावनायें द्वारा अपनी आत्माको पवित्र करता रहे, जैसेकिपढम मणिच्च मसरणं संसारे एगयाय अन्नत्तं ॥ असुश्तं आसव संवरोय तह निजरा नवमी १॥ लोगसहावोबोहीउबहा धम्मस्स सावहगायरिहा एया उन्नावणाउन्नावेयवा पयत्तेणं ॥२॥ ___ भाषार्थ:-संसारमें जो जो पदार्थ देखने में आते हैं वे सर्व अनित्यता प्रतिपादन कर रहे हैं । जो पदार्थोंका स्वरूप

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