________________
( ३४४ )
लिये उसके स्थूल जीवहिंसाको परित्याग होता है, जैसे किजान करके वा देख करके निरपराधि जीवोंको न मारें । उसमें भी सगासंम्बंधि आर्दिका आगार होता है और इस नियमसे न्यायमार्गकी प्रवृत्ति अतीव होती है। फिर इस नियमको राजसे लेकर सामान्य जीवों पर्यन्त सवी आत्मायें सुखपूर्वक धारण. कर सक्ते हैं और इस नियमसे यह भी सिद्ध होता होता कि जैन धर्म प्रजाका हितैषी राजे लोगों का मुख्य धर्म है । निरं पराधियोंको मत दुःख दो और न्यायमार्ग से वाहिर भी मत होवो और सिद्धार्थ आदि अनेक महाराजोंने इस नियमको पालन किया है । फिर भी जो जीव सअपराधि है उनको भी दंड अन्याय से न दिया जाये, दंडके समय भी दयाको पृथक् न 'किया जाये, जिस प्रकार उक्त नियममें कोई दोष न लगे, उसे प्रकारसे ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि सूत्रों में यह बात देखी जाती है । जिस राजाने किसी अमुक व्यक्तिको दंड दिया तो साथ ही स्वनगर में उद्घोषणा से यह भी प्रगट कर दिया कि--- हे लोगो ! इस व्यक्तिको अमुक दंड दिया जाता है इसमें राजेका कोइ भी अपराध नहीं है, न प्रजाका, अपितु जिस प्रकार इसने यह काम किया है उसी प्रकार इसको यह दंड दिया गया है । सो इस कथन से भी न्यायधर्मकी ही पुष्टि होती है ॥