Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 223
________________ ( २१३ ) साथ एकत्वबुद्धि । (३) लोकदृष्टि का विचक्षणपना (चतुराई) । (४) लोकमान्य धर्म श्रद्धावानपना (लोग जिसे धर्म कहे उसकी श्रद्धा)। जब तक जीव इन चारो को लवालव भरा प्रत्यक्ष जहर का प्याला नही माने, तव तक आत्मा का किंचित मात्र भी कल्याण नही हो सकता है। अर्थात जीव की धर्म प्राप्ति का पात्र भी नहीं कहा जा सकता है। प्रश्न १-~-'शोभायमान गृह आदि आरम्भ' को स्पष्ट कीजिए ? उत्तर--शोभायमान गृह आरम्भ अर्थात् कपायो की प्रवृतियो को आरम्भ कहते है । अर्थात कुछ करना कराना आदि प्रवृत्ति का नाम आरम्भ है । बडे-बडे कारखाना चलाना, वडी-बडी दुकान चलाना यह तो अल्प आरम्भ है । 'करूँ-कलं' यह कषाय की प्रवृत्ति यह सबसे महान आरम्भ है। जिस प्रकार कोई हलाहल जहर को पीले, वह बच नहीं सकता, उसी प्रकार जो अनादि काल से शुभभाव की प्रवृत्ति को अच्छा माने, उसका कभी कल्याण नहीं हो सकता। क्योकि यह मिथ्यात्व है और मिथ्यात्व सात-व्यसनो से भी महा भयकर पाप है। इसलिए जव तक शुभभाव अच्छा, अशुभभाव बुरा यह मान्यता रहती है तब तक जीव धर्म प्राप्त करने का पात्र नहीं कहा जा सकता है। प्रश्न २-'अलंकारादि परिग्रह' को स्पष्ट कीजिए ? उत्तर-अलकारादि परिग्रह अर्थात कषायो के साथ एकत्वबुद्धि। लोक मे कपडा, धन-गहना, मोटरगाडी आदि परिग्रह कहा जाता है। लेकिन वास्तव मे 'इच्छा ही परिग्रह है' समस्त प्रकार से ग्रहण किया जावे ऐसा दया-पूजा का भाव हितकारी मददगार है यह कषायो के साथ एकत्वबुद्धि है। अज्ञानी मिथ्यादृष्टि दया-दान-पूजा, शास्त्र पढने के भाव को हितकारी मानते हैं। जब तक उसे प्रत्यक्ष जहर का प्याला ना जाने तब तक आत्म कल्याण नही हो सकता क्योकि शुभ भाव भी आस्रव-बन्धरूप, दुखरूप, अपवित्र, जड़ स्वभावी है। जो

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