Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 287
________________ ( २७६ / प्रश्न १२७ - यह कहाँ श्राया है कि पहले चारित्र का उपदेश और जो चारित्र ना ग्रहण कर सके, तो फिर श्रावक, सम्यक्त्व का उपदेश देना चाहिए ? उत्तर - पुरुषार्थ सिद्धयुपाय गाथा १७ मे लिखा है कि जो जीव सम्पूर्ण निवृत्तिरूप मुनिदशा को कदाचित ग्रहण न कर सके, तो उसे गृहस्थाचार का कथन करे तथा १८वें श्लोक मे 'जो उपदेशक मुनिधर्म का उपदेश न देकर श्रावक धर्म का उपदेश देता है उस उपदेशक को सिद्धान्त मे दण्ड पाने का स्थान कहा है । प्रश्न १२८ दिव्य विटप वहुपन की वर्षा, दुन्दुभि आलन वाणी सरसा । छत्र चमर भामण्डल भारी, ये तुम प्रातिहार्य मनहारी ॥ इस छन्द का क्या अर्थ है ? उत्तर- इस शान्ति पाठ मे भगवान के आगे जो आठ प्रातिहार्य होते है उनके नाम हैं - १. दिव्य विपट ( अशोकवृक्ष) २ पहुपन की वर्षा (पुष्पो की वर्षा का होना) ३ दुन्दुभि ( बाजो का बजना ) ४ आसन ( सिंहासन ) ५ वाणी सरसा (दिव्यध्वनि ) ६ छत्र ७ चमर ८ भामण्डल । प्रश्न १२६ - साम्यवाद कितने प्रकार का है उत्तर - तीन प्रकार का है - ( १ ) भोगभूमि का साम्यवादः पुण्य का करीब साम्यपना । (२) निगोद का साम्यवाद = अनन्त दुख (३) सिद्धदशा का साम्यवाद = अनन्त अव्यावाध सुख । प्रश्न १३० - चार प्रकार की मुक्ति को कार्माण शरीर को अपेक्षा बाँटो ? = उत्तर- (१) दृष्टि मुक्ति मे ७॥ कर्म का सम्बन्ध है (२) मोह मुक्त मुक्ति मे सात कर्म का सम्बन्ध है । ( ३ ) जीवन मुक्त मुक्ति मे = चार अघाति कर्म का सम्बन्ध है ( ४ ) विदेह मुक्ति मे - किसी भी कर्म का सम्बन्ध नही है ।

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