Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 298
________________ ( २६० ) (८) दोष तो जीव का है। कर्म का देखता है यह तेरा हरामजादीपना है ऐसा आत्मावलोकन मे आया है। मेरी पर्याय मे दोष अपने अपराध से है । ऐसा जानकर निर्दोप स्वभाव का आश्य ले, तो कल्याण का अवकाश है । (६) बाई जल भरने गई। कलशा नीचे गिर गया। उसमे खड्डा 'पड गया। खडढे को दूर करने के लिए ऊपर से चोट मारे। क्या खड्डा ठीक होगा ? कभी नही, उसी प्रकार अपने कल्याण के लिए पर का, कर्मों का, विकारी भावो से लाभ माने तो क्या कल्याण होगा ? कभी नही। जैसे-कलशे के ऊपर पत्थर रखकर अन्दर से चोट मारे, तो ठीक हो जाता है, उसी प्रकार जीव स्वभाव का आश्रय ले, तो पर्याय मे से दोप चला जाता है, कल्याण हो जाता है। (१०) जैसे-कृष्ण के शखनाद से धनुष चढाने से पद्मोत्तर राजा की सेना भाग गई और पद्मोत्तर राजा भी भागकर द्रौपती के पास गया। हे माता | मेरी रक्षा करो। तब द्रौपती ने कहा, तुम साडी पहर कर श्री फल लेकर मेरे भाई के पास जाओ, वह स्त्री पर हाथ नही उठाता; उसी प्रकार य जीव एकबार अपने स्वभाव का आश्रय ले, तुरन्त कल्याण हो जाता है। (११) जैसे-बन्दर की उलझन इतनी ही है वह मुटठी नही खोलता; उसी प्रकार यह जीव मात्र अपने स्वभाव का आश्रय नही लेता । जैसे-बन्दर मुट्ठी खोलदे, तो छूटा ही है, उसी प्रकार जीव अपना आश्रय ले-ले तो ससार अलग पड़ा है।। (१२) तोते की उलझन इतनी ही है कि वह नलिनी को नही छोडता, यदि छोड दे, तो छूटा ही पडा है, उसी प्रकार जीव की उलझन इतनी सी है, कि स्वभाव का आश्रय नही लेता यदि ले-ले, तुरन्त कल्याण हो जावे। (१३) जैसे-मग मरीचिका मे जल मानकर दौडता है । इसी से -बह दुखी है, इसी प्रकार यह जीव पर को अपना मानता है, इसीलिए

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