Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 300
________________ ( २६२ ) उसका राग अनर्थ परम्परा निगोद का कारण है । (५) परमात्मप्रकाश अध्याय प्रथम गा०६८ मे ज्ञानी का राग पुण्य बध का कारण और मिथ्यादृष्टि का शुभराग पाप वध का कारण है, ऐसा लिखा है। प्रश्न १६४-पद्मनन्दी पंच विशति मे एकत्व अधिकार मे (१) सर्व (२) सर्वत्र, (३) सर्वदा और (४) सर्वथा की बात क्यो ली है? उत्तर-[अ] हे भव्य । (१) सर्व द्रव्यो को, (२) सर्वत्र अर्थात सर्व क्षेत्रो को, (३) सर्वदा अर्थात् सर्वपर्यायो को भूत-भविष्य-वर्तमान कालो को, (४) सर्वथा अर्थात सबके सर्व गुणो को जानना, तेरा स्वभाव है । ऐसा तू जान, ऐसा जानने से तुझे मोक्ष की प्राप्ति होगी। {आ] और (१) सर्व पर द्रव्यो मे, (२) सर्वत्र सब द्रव्यो के क्षेत्रो मे, (३) सर्वदा सर्व द्रव्यो को भूत, भविष्य, वर्तमान पर्यायो मे, (४) सर्वथा सब द्रव्यो के गुणो मे कर्ता-भोक्ता की बुद्धि निगोद का कारण है। ऐसा बताकर ज्ञाता दृष्टा रहने के लिए एकत्व अधिकार मे सर्व सर्वत्र सर्वदा और सर्वथा की वात की है। प्रश्न १६५-धर्म क्या है ? उत्तर-(१) वस्तु का स्वभाव वह धर्म है । (२) चारो गतियो से छूटकर उत्तम मोक्ष सुख मे पहुँचावे वह धर्म है । (३) स्वद्रव्य मे रहना सुगति अर्थात् धर्म है । और २८ मूलगुण पालने का भाव, १२ अणुव्रतो का भाव, भगवान के दर्शन का भाव, जिस भाव से तीर्थंकर गोत्र का वध होता है ऐसा सोलह कारण का भाव आदि सब ससार है, धर्म नही है । (४) निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र की एकता धर्म है, व्यवहार रत्नत्रय धर्म नही है। (५) वस्तु स्वभाव रूप धर्म, उत्तम क्षमादि दश विध धर्म, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप धर्म , जीव रक्षा रूप धर्म इन सब मे सम्यग्दर्शन की प्रधानता है। सम्यग्दर्शन-पूर्वक ही धर्म होता है । सम्यग्दर्शन के बिना चारो मे से एक प्रकार भी धर्म नही होता है । निश्चय से साधने मे चारो मे एक ही प्रकार धर्म है। प्रश्न १६६-प्रमाण का व्युत्पत्ति अर्थ क्या है।

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