Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 321
________________ वाले को आध्यामोपदेश अभ्यास करने योग्य है,-ऐसा जानकर निचली दशा वालो को वहाँ से पराड मुख होना योग्य नही है। प्रश्न २१७-उच्च उपदेश का स्वरूप निचली दशा वालों को भासित नहीं होता? उत्तर-अन्य (अन्यत्र) सो अनेक प्रकार की चतुराई जानता है और मूर्खता प्रगट करता है वह योग्य नही है। अभ्यास करने से स्वरूप बराबर भासित होता है, तथा अपनी बुद्धि अनुसार थोडाबहुत भासित होता है, किन्तु सर्वथा निरुद्यमी होने का पोषण करें वह तो जिनमार्ग का द्वषी होने जैसा है। प्रश्न २१८-यह फाल निकृष्ट (हलका) है, इसलिये उत्कृष्ट अध्यात्म के उपदेश की मुख्यता करना योग्य नहीं है। । उत्तर-यह काल साक्षात् मोक्ष न होने की अपेक्षा से निकृष्ट है, किन्तु आत्मानुभवादि द्वारा सम्यक्त्वादि होने का इस काल मे इन्कार नही है, इसलिये आत्मानुभवादि के हेतु द्रव्यानुयोग का अभ्यास करना चाहिये। श्री कुन्दकुन्दाचार्य रचित "मोक्षपाहुड" मे कहा है कि - अज्ज वि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि इंदत्त। लोयतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिदि जति ॥७॥ अर्थ-आज भी त्रिरत्न द्वारा शुद्ध आत्मा को ध्याकर इन्द्रपना प्राप्त करते हैं, लौकान्तिक (स्वर्ग) मे देवत्व प्राप्त करते है और वहाँ से चयकर (मनुष्य होकर) मोक्ष जाते हैं। इसलिये इस काल मे भी द्रव्यानुयोग का उपदेश मुख्य आवश्यक है। प्रथम द्रव्यानुयोग के अनुसार श्रद्धान कर सम्यग्दृष्टि होना, xx ऐसे मुख्यता से तो नीचे की दशा मे हो द्रव्यानुयोग कार्यकारी है। [श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २६२ से २६४]

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