Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 311
________________ ( ३०३ ) गुणस्थान मे होता है । (२) ऋजुसूत्रनय-चौथा, पांचवां, छठा गुणस्थान वाले अविरत, श्रावक और मुनिपने को स्वीकार करता है। (३) शब्दनय-४, ५, ६, गुणस्थान स्थिति उपदेशकल्प भूमिका है। वैसा भाव परिणमित होता है। (४) समभिरूढनय-८-६-१०-१२ श्रेणी मॉडने वाले जीवो पर ही लागू होता है। क्योकि वे श्रेणी मे आरूढ हो गये है। श्रेणी चढ गया वह समभिरूढनय मे गिना जाता है। । ५) एवभूतनय-जैसा द्रव्य है वैसी ही पर्याय मे हो जाता । १३१४वां गुणस्थान का ग्रहण एवभूतनय मे होता है। प्रश्न १६३-८-६-१०-१२-१३-१४ वे गुणस्थान वालो को तो उस समय ऐसा विकल्प नहीं आता कि हम श्रेणी मॉड रहे हैं। फिर ऐसा क्यो कहा? उत्तर-जो जीव सम्यग्दृष्टि है और ४-५-६ गुणस्थान मे हैं । वे जीव विचारते है कि ऐसी-ऐसी अवस्था कौन-कौन से गुणस्थान मे होती है । तथा १३-१४ वॉ गुणस्थान नयो से अतिक्रान्त होने पर भी साधक जीव उसका विचार करते है। प्रश्न १९४--अध्यात्म मे नय किसे कहते हैं ? उत्तर-"तद् गुण सविज्ञान, सो नया।" अर्थ जो गुण जैसा है उसका वैसा ही ज्ञान करना वह नय है। इससे यह साबित हुआ, जो पर के साथ किसी भी प्रकार का सम्बन्ध हो, अध्यात्म उसे नय ही नही कहता। पचाध्यायीकार ने पर के साथ सम्बन्ध को नयाभास कहा है। प्रश्न १६५-नय किसको लागू होते हैं और किसको नहीं होते __उत्तर-मिथ्यादृष्टि और केवली को नय नही होते है क्योकि नय तो भावत ज्ञान का अश है । सम्यग्दर्शन होने पर हो नय लागू होते हैं और केवली नय से रहित है । चौथे गुणस्थान से १२ वे तक नय का विपय है।

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