Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 313
________________ ( ३०५ ) सामान्य चैतन्य स्वभाव जो शुद्ध द्रव्याथिक नय का विषय है-उसकी ओर दृष्टि करने से और उपयोग को उसमे लोन करने से निश्चय रत्नत्रय प्रगट होता है। प्रश्न २००-सम्यग्दर्शन होने पर केवलज्ञान कैसे प्रगट होता उत्तर-साधक जीव प्रारम्भ से अन्त तक निश्चय की मुख्यता रखकर, व्यवहार को गौण ही करता जाता है। इसलिए साधक को साधक दशा मे निश्चय की मुख्यता के बल से शुद्धता की वृद्धि ही होती जाती है और अशुद्धता हटती जाती है। इस तरह निश्चय की मुख्यता के बल से ही पूर्ण केवलज्ञान प्रगट होता है। प्रश्न २०१-समयसार गाथा ४१३ मे व्यवहार विमूढ किसे बताया है ? उत्तर-व्यवहार करते-करते या उसके अवलम्ब से निश्चय प्रगट हो जावेगा। ऐसी जिसकी मान्यता है उसको व्यवहार विमूढ कहा है। प्रश्न २०२-जीव संसार में परिभ्रमण क्यो करता है ऐसा कहीं ब्रह्म-विलास में बताया है ? उत्तर-जैसे-कोऊ स्थान परयो काँच के महल बीच, ठौर और स्वान देख भंस भंस मर्यो है। बानर ज्यो मूठी बांध पर्यो है पराये दश, कुए मे निहार सिंह आप कूद पर्यो है ।। फटिक की शीला में विलोक गज जाय अर्यो, ___ नलिनी के सुवटा को कौने धों पफर्यो है । तैसे ही अनादि को अज्ञान भाव मान हंस, __ अपनो स्वभाव भूलि जगत में फिर्यो है ।। _ _ लोचन सब धरै मणि नहिं मोल कराहि, सम्यकदृष्टि जौहरी विरले इहि जग माहि ।।

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