Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 310
________________ ( ३०२ ) प्रश्न १८६ - नेगमादि सात नयों का आध्यात्मिक रहस्य क्या है ? उत्तर- ( १ ) मैं सिद्ध समान शुद्ध हू ऐसा मकल्प वह सकल्प ग्राही नैगमनय है । (२) मैं अनन्त गुणो का पिण्ड हूं यह अभेद ग्राही संग्रह नय है । (३) मै दर्शन-ज्ञान-चारित्र वाला हू ऐसा भेदग्राही व्यवहारनय है । (४) पूर्णता के लक्ष से शुरूआत करता हू यह ऋजुसूत्र नय का विषय है । (५) जैसा विकल्प उठा है वैसा परिणमन होना शब्द - नय का विषय है । (६) उसमे कचास ना रह जावे ८ से १२ वे गुणस्थान तक समभिरूढनय का विषय है । ( ७ ) शुद्धि आगे बढता रहे ऐसा १३-१४वाँ गुणस्थान यह एत्रभूत नय का विषय है । प्रश्न १६० - इन सातो नयो में और क्या विशेषता है ? उत्तर - सातो नय एक दूसरे की अपेक्षा सूक्ष्म है । नैगमनय की अपेक्षा सूक्ष्म है मग्रहनय । और सग्रहनय की अपेक्षा सूक्ष्म है व्यवहार नय । इसी अपेक्षा से एव भूतनय सबसे सूक्ष्म है । अर्थात् एवभूत नय का विषय अति सूक्ष्म है । प्रश्न १६१ - नैगमनय का पेट बड़ा भारी है। ऐसा क्यो कहा जाता है ? उत्तर - नैगमनय - वर्तमान मे जो जीव मिथ्यादृष्टि हो उसे सम्यग्दृष्टि कह देता है । जैसे- भरत महाराज का पुत्र तथा आदिनाथ भगवान का पोता मारीच जो कि उस समय गृहीत मिथ्यादृष्टि था । उसे महावीर कह दिया। जब कि मारीच के बडे-बडे भव जिसमे निगोद भी शामिल है। तब भी नैगमनय की अपेक्षा महावीर कह दिया । निर्विकल्प अवस्था होने पर सिद्ध कह देना । तथा राजा श्रेणिक जो कि वर्तमान मे पहिले नरक में है उसे तीर्थंकर कह देना । इसी अपेक्षा कहा जाता है कि नैगमनय का पेट बडा भारी है । प्रश्न १९२ - सातो नय कौन-कौन से गुणस्थान मे होते हैं ? उत्तर - (१) नैगमनय, सग्रहनय, व्यवहानय पहला और चौथे

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