Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 308
________________ ( ३०० ) अज्ञानी कहे-आप बहुत पुण्य शाली है। जहाँ जाते है वहाँ सम्मान होता है। ज्ञानी कहते हैं-अरे भाई । हमे गाली मत दो। क्योकि मै पुण्य शाली अर्थात् विकार शाली नही हूँ। मैं तो अनन्त ज्ञायक चैतन्य स्वभावी भगवान हू। पर द्रव्य को अपना नही मानने वाला ज्ञानी कहता है कि समयसार गाथा २०६ मे कहा है कि . छेदाय ता भेदाय, को ले जाय, नष्ट बनो भले । या अन्य को रीत जाय, परिग्रह न मेरा है अरे ॥२०६॥ अर्थ-छिद जावे, भिद जावे, कोई ले जावे, नष्ट हो जावे, तथा चाहे जिस प्रकार से चला जावे, वास्तव में यह पर पदार्थ मेरा परिग्रह नही है ऐसा जानता हुआ ज्ञानी पर द्रव्यो के ग्रहण का भाव नही करता है। प्रश्न १८५-ज्ञानी अपनी आत्मा का किस-किस से प्रदेशभेद जानता है ? उत्तर-(१) अत्यन्त भिन्न पर पदार्थों से । (२) शरीर इन्द्रियाँ मन वाणी से। (३) आठ कर्मों से (४) शुभाशुभ विकारीभावो से (५) गुण भेदो से। (६) एक समय की शुद्ध पर्याय जितना भी मेरा स्वरूप नहीं, इसलिए ज्ञानी इन सबसे अपना प्रदेशभेद जानता है । प्रश्न १८६-ज्ञानी अपना निवास कहां रखता है और कहां नहीं रखता? उत्तरजहां दुख कभी न प्रवेशी सकता, तहाँ निवास ही राखिए। सुख स्वरूपी निज आरम में ज्ञाता होके राचिए ॥१॥ जैसे -(१) क्या नारकी नरक मे पडा ऐसा मानता है कि मैं स्वर्ग मे पडा हू ? नहीं मानता है। (२) स्वर्ग का देव स्वर्ग मे पडा हुआ क्या ऐसा मानता है कि मैं नरक मे पडा हूँ ? नही मानता है; उसी प्रकार ज्ञानी अनन्त प्रकाश युक्त असख्यात प्रदेशी मेरा क्षेत्र है। वह सुखधाम स्वरूप है उसमे रहता हुआ शानो कभी मैं पर द्रव्यो मे,

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