Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 307
________________ ( २६६ ) हुआ घूमता है, और जो अपराध नही करता वह लोक मे निशक घूमता है उसे कभी बँधने की चिन्ता उत्पन्न नही होती है, उसी प्रकार अज्ञानी पर वस्तुओ से, शरीर इन्द्रियो से, कर्मों से, शुभाशुभ भावो से लाभ-नुकसान मानने के कारण निरन्तर शकित रहता है और ज्ञानी की दृष्टि अपने सकल निरावरण अखण्ड एक-प्रत्यक्ष प्रतिभासमय, अविनश्वर शुद्ध पारिणामिक परमभाव लक्षण निज परमात्म द्रव्य पर होने से कभी शकित नही होता है। प्रश्न १८४ -ज्ञानी पर द्रव्यो के ग्रहण का भाव क्यो नहीं करता? उत्तर-समयसार गाथा २०७ मे लिखा है किपर द्रव्य, यह मुझ द्रव्य, यो तो कौन ज्ञानी जन कहै। निज आत्मा को निज का परिग्रह, जानता जो नियम से ।२०७॥ अर्थ-ज्ञानी अपने अनन्त गुणो के अभेद पिण्ड को ही अपना परिगह जानता है। क्या सम्यग्दृष्टि लक्ष्मी, सोना, चाँदी, मकान, शरीर, इन्द्रियाँ, मन, वाणी, आठ कर्मों, शुभाशुभ विकारीभाव, गुण भेद और अपूर्ण पूर्ण शुद्ध पर्याय के पक्ष को अपना कहेगा ? कभी नही कहेगा । क्योकि एक तरफ राम (अपनी आत्मा) और दूसरी तरफ गाम (पर, शरीर, इन्द्रियाँ, कर्म, विकार, शुद्ध पर्याय) के भेद विज्ञान की सच्ची दृष्टि प्रगट होने से ज्ञानी को पर द्रव्यो के ग्रहण का भाव नही होता है। समयसार गाथा २०८ मे लिखा है किपरिग्रह कभी मेरा बने, तो मैं अजीव बनूं अरे । मै नियम से ज्ञाता हि, इससे नहिं परिग्रह मुझ बने ॥२०॥ ___ अर्थ-यदि पर द्रव्य मेरा परिग्रह बने तो, जैसे-अज्ञानी ज्ञानी से कहे, आप ५० करोड रुपये के स्वामी हैं । ज्ञानी कहते है-भाई मुझे ऐसी गाली मत दो। क्या मुझे जड बना देना चाहते हो, क्योकि जड का स्वामी जड होता है।


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