Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 05
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 286
________________ ( २७८ ) अलमारी में रख दो और जितना रुपया गुजारे के लिये चाहिए ले जाओ और आज से यही काम सीखना शुरू कर दो। तो उन्होने ऐसा ही किया । काम करते-करते दो साल हो गये तव धन्नालाल सेठ ने कहा, तुम आज अपने हीरे को निकालकर लाओ आज उसका खरीददार आया है। तव उसने अलमारी मे से निकाला और देखकर फेक दिया और सेठ से आकर कहा, सेठ जी वह तो कांच का टुकडा था, आपने उसे कीमती कैसे बताया था। सेठ ने कहा-भाई जिस दिन तुम उसे लेकर आये थे, यदि मै काँच का टुकडा कहता तो तुम विश्वास ना करते और यह कहते कि यह मेठ हमे ठगना चाहता है, इसलिये मैने ऐसा कहा था, उसी प्रकार अज्ञानी ने अनादिकाल से दिगम्बर धर्म धारण करने पर भी शुभभाव करते-करते धर्म हो जावेगा, ऐसी मान्यता पक्की कर ली है। इसलिए जब हम ज्ञानी के पास जावें तो अपनी मान्यता को तिजोरी से बन्द करके, उनकी बात सुने और विचारे नो कल्याण का अवकाश है। अत प्रथम सच्चे गुरु का निर्णय करके, जैसा गुरु ने कहा, देव ने कहा और जैसा उपदेश दिया। वैसा ही निर्णय करके, अपने अन्तरग मे जव तक भावभासन ना हो तब तक पात्र जीव को बरावर उद्यम करना चाहिए। परन्तु जो गुरु की वात झूठी माने, उसके कल्याण का अवकाश नही है । प्रश्न १२६-"जे विनयवन्त सुभव्य उर, अम्बुज प्रकाशन भान है। जे एक मुख तारित्र भासित, त्रिजग माहीं प्रधान है" इसका क्या अर्थ है ? उत्तर-जिनेन्द्र भगवान की वाणी मे आया है कि "तीन काल और तीन लोक मे चारित्र ही प्रधान है" (यहाँ 'मुख' का अर्थ मुख्य है) इसलिए विनयवन्त सुभव्य ( अति आसन्न ) जीवो को चारित्र ग्रहण करना चाहिए। यदि चारित्र धारण ना कर सके तो श्रावकपना ग्रहण करना चाहिए और यदि श्रावकपने को भी प्राप्त कर सके तो सम्यग्दर्शन तो प्राप्त कर ही लेना योग्य है। रित्र भासित, भव्य उर, अवजा नही है।

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