Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1915 Book 11 Jain Itihas Sahitya Ank
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference
View full book text
________________
४८४
श्री. रेन वे. .. ३३६४. शोक दूर करनेके लिये शासनदेवी अंबाने प्रत्यक्ष होकर आप को समझाया किं-सरिवर! आप जैसे सिद्धान्त तत्व के जाननेवाले महानुभाव को एक अवश्य भावि घटना से इस प्रकार ना हिम्मत नहीं होना चाहिये । आप सरीखे ज्ञानीपुरुषों पर शोकाग्नि इस कदर अपना कब्जा जमावे यह बडे आश्चर्य की बात है। प्रभो ! अब इस चिन्तासे मुक्त हो जाइये । आप के पास शिष्यसंतति का पुण्य नहीं है; आप की संतति आप के ग्रन्थ ही होंगें। बस इसी की वृद्धि करें यही आपका शाश्वत वंश और कीर्तिका स्तंभ है"। इन दोनो मान्यताओंमें विशेष विश्वास के योग्य कौन ? इस प्रश्न का यथार्थ उत्तर तो सर्वज्ञवेद्य है तथापि रूढिगतवृत्तान्त अविश्वसनीय मालूम होता है । इस की अपेक्षा प्रभावकचरितप्रतिपादित हकीकत कुछ युक्तियुक्त अँचती है । क्यों कि प्रसिद्धि कहती है कि 'आपने विरहांकयुक्त १४४४ ग्रन्थ रचे' पर 'आवश्यक वृहनि , न्यायप्रवेशिका टीका' वगैरह कई हारिभद्रीय ग्रन्थो में 'विरह' शब्द नहीं पाया जाता, इसलिये इस विषय में प्रसिद्धि कमजोर है। इससे सिद्ध हुआ कि पूर्वोक्तविरोधपरिहारक अनुमान ठीक है, तथापि विद्वान् लोग इस विषय को ग्वव ध्यान के साथ पढ़ें। __१४४० की संख्या में यह अपेक्षा हो सकती है कि 'संसारदावानल' इस स्तुति के चार पद्य जो चार ग्रन्थ गिने जाते हैं उन का ग्रहण न करके १४४० की संख्या लिख दी हो, तो यह बात निःसंदेह अविरुद्ध है।
तीसरी संदिग्ध वार्ता आप के स्वर्गवास के विषय में है। इस विषय में अनेक विप्रतिपत्तियां है-“ पंचसए पणत्तीए विकमभूआओ झत्ति अत्थमिओ । हरिभद्दसूरिसूरो धम्मरओ देउ मुक्खसुहं " इस विचारसारप्रकरण की गाथा को देख के कई लोग आप का निर्वाण समय विक्रमात् ५३५ का सिद्ध करते हैं, परंतु यह ग़लत है ' पणत्ती ' यह पाठ प्राकृत व्याकरण से प्रतिकूल-अशुद्ध है, इस जगह ‘पणसीए' ऐसा शुद्ध पाठ चाहिये ।
कोइ पणपण्णबारससए हरिभद्दो मूरि आसि” इस रत्नसमुच्चय प्रकरण के वचन से आप को वीरकी तेरहवीं सदीमें हुए स्वीकार करते हैं, पर यह भी गलत बात है। पूर्वोक्त पाठ में कहे हुए हरिभद्रमरि याकिनीमहत्तरा