Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1915 Book 11 Jain Itihas Sahitya Ank
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference

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Page 346
________________ પરદે श्री जैन श्वे. . डेन्ड. इससे संभव है कि यह संघ दिगम्बरकी अपेक्षा श्वेताम्बर संघसे विशेष निकटता रखता हो, अर्थात् इसके सिद्धान्त श्वेताम्बर सम्प्रदाय से अधिक मेल खाते हों । दर्शनसारकी वह गाथा यह है: कल्लाणे वर णयरे सत्तसए पंचउत्तरे जादे । जावणियसंघभावो सिरिकलसादो हु सेवडदो || [ कल्याणे वरनगरे सप्तशते पञ्चोत्तरे जाते यापनीयसंघभावः श्रीकलशतः खल सेवडतः ॥ ] अर्थात् कल्याण नामके श्रेष्ठ नगर में, विक्रमादित्यकी मृत्युके ६०५ वर्ष बाद, श्रीकलश नामके श्वेताम्बर से यापनीय संघका सद्भाव हुआ । इससे यह भी निश्चय हो जाता है कि शाकटायन विक्रम मृत्यु के ७०५ वर्ष बाद किसी समय हुए हैं और मुनिमहाशय के अनुमानकी अपेक्षा यह समय लगभग २०० वर्ष पीछे और भी हटकर राजा अमोघवर्षके समीप जिनके स्मरणार्थ अमोघवृत्ति बनी है - पहुँच जाता है । श्रीमलयगिरिसूरिने नन्दीसूत्रकी टीकामें शाकटायनकी 'स्वोपज्ञ शब्दानुशासनवृत्ति' अर्थात् स्वयंनिर्मित टीकाका उल्लेख किया है । उससे यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि शाकटायनकी स्वोपज्ञ वृत्ति भी है और वह अमोघवृत्तिको छोड़कर दूसरी नहीं हो सकती । और जब यह सिद्ध हो गया तब शाकटायनका अमोघवर्ष समयका होना अर्थात् सिद्ध है । कई बातें और भी ऐसी हैं जिन से मालूम होता है कि शाकटायन व्याकरण बहुत प्राचीन नहीं है: — १ शाकटायनकी जितनी टीकायें और वृत्तियाँ हैं वे सब नववीं दशवीं शताब्दिके बाद विद्वानोंकी लिखी हुई हैं । अमोघवृत्ति अमोघवर्ष के समय की है । प्रभाचन्द्रकृत न्यास अमोघवृत्तिका व्याख्यान है, अत एव वह उसके पीछेका होना ही चाहिए । चिन्तामणिवृत्ति यक्षवर्मा की बनाई हुई है और यह शाकटानकी महती वृत्ति अमोघवृत्तिको संक्षेप करके बनाई गई है इस बातको यक्षवर्मा स्वयं स्वीकार करते हैं, अतएव यह भी पीछेकी बनी हुई है । मणिप्रकाशिका टीका अजितसेनाचार्यकी बनाई हुई है और यह चिन्तामणिकी टीका है, अतएव

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