Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1915 Book 11 Jain Itihas Sahitya Ank
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference
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श्रीन श्वे. 3. १२९. नात्र प्रतिक्रमे भेदो न प्रायश्चित्तकर्मणि ।
नाचारवाचनायुक्तवाचनस्तु विशेषतः ।। १३ ॥ . इन चारों संघवालोंको परस्पर अभेदभाव रखनेके लिए इन्द्रनन्दि उपदेश देते हैं और जो भेदभाव रखता है उसको मिथ्याती पापी बतलाते हैं:--
चतुःसंघे नरो यस्तु कुरुते भेदभावनाम् ।
स सम्यग्दर्शनातीतः संसारे संचरत्यसौ ॥ ४२ ॥ ये नन्दिसेन आदि नाम किस कारणसे रक्खे गये, इस विषयमें मतभेद है कोई कुछ कहता है और कोई कुछ । जैनसिद्धान्तभास्करने किसी ग्रन्थके आधारसे लिखा है कि " नन्दी नामक वृक्षके मूलमें जिसने वर्षायोग धारण किया उससे नन्दिसंघ, २ जिनसेन (?) नामक तृणतलमें जिसने वर्षायोग धारण किया उससे वृषभसंघ या सेनसंघ, ३ सिंहकी गुफामें जिसने वर्षायोग किया उससे सिंहसंघ और ४ देवदत्ता नामक वेश्याके यहाँ जिसने वर्षायोग धारण किया उसने देवसंघ स्थापित किया।" श्रुतावतारकथामें लिखा है कि जो मुनि गुफामें से आये उनमें से किसीको नन्दि और किसीको वीर, जो अशोकवनसे आये उनमें से किसीको अपराजित और किसीको देव, जो पंचस्तूपोंमें से आये उनको सेन
और भद्र, जो सेमरके झाडके नीचेसे आये उनको गुणधर और गुप्त, जो खण्डकेसर वृक्षके नीचसे आये उनको सिंह और चन्द्र नामधारी बना दिया । पर स्वयं श्रुतावतारके रचयिताको इस विषयका पूरा निश्चय नहीं है । वे और आचार्योंका मत भी साथ साथ लिखते हैं। कहते हैं कि किमी किसीके मतसे गुहासे आये हुए नन्दि, अशोकवनसे आये हुए देव, पंचस्तूपोंसे आये हुए सेन, सेमरके नीचे से आये हुए वीर और खण्डकेसर वृक्षके नीचे से आये हुए भद्र हुए। __श्रुतावतारके कथनानुसार यह जो किसीको नन्दि, किसीको वीर, किसीको अपराजित आदि बनाया गया है जो अहद्धति आचार्यने यही सोचकर बनाया लिखा है कि अब जैनधर्म उदासभावसे नहीं किन्तु गणपक्षपातभेदसे स्थिर रहेगा । परन्तु इस रचनामें ऊपर कहे हुए चार संघोंका निश्चय नहीं होता है । ऐसा मालम होता है कि ये ' अन्त्यपद' हैं जो आचार्योंके नाममें रहते हैं जैसे देवनन्दि, अकलदेव, गुणभद्र, सिंहगुप्त, जिनसेन आदि । परन्तु इन्हीं में कुछ पद ऐसे भी हैं जो नामोंमें नहीं समा सकते जैसे, अपराजित, गुणधर आदि । श्रुतावतारके कर्ता सिंह, देव, नन्दि, सेनसंघका पृथक् उल्लेख कहीं भी नहीं