Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1915 Book 11 Jain Itihas Sahitya Ank
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference
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દિગમ્બર-સમ્પ્રદાયકે સ.
પ૩૭
नेके कारण यह उससे जुदा ही मालूम होता है । काष्ठासंघके साधु गायकी पूँछकी पिच्छि रखते हैं । दर्शनसारके लेखक कहते हैं कि "काष्ठासंघसे २०० वर्ष पीछे, मथुरा, रामसन नामक आचार्यने इस संबकी स्थापना की । उसने! ममत्वबुद्धिसे यह उपदेश दिया कि अपने स्थापित किये हुए जिनविम्बकी बन्दना करना चाहिए अन्य स्थापितकी नहीं। और २ यह मेरा गुरु है, यह नहीं है, ऐसा विचार करके अपने गुरुका सत्कार करना चाहिए दूसरेके गुरुका नहीं।
धर्मपरीक्षा, सुभाषितरत्नसन्दोह आदि उत्तमोत्तम ग्रन्थों के प्रणेता अमितगतिसूरि इसी माथुरसंघके आचार्य है। इनका एक श्रावकाचार भी है जिसके पठनपाठनका मूलसंघियोंमें यथेष्ट प्रचार है। उनके इन ग्रन्थोंसे तो कोई बात ऐसी नहीं मालूम होती है जिसके कारण यह संघ जैनाभास न ठहरा जाय; परन्तु देवसेनसूरिकी रायमें यह निन्हव या मिथ्याती ही है!
पूर्वकालके संघोंका परिचय दिया जा चुका। अब हम आधुनिक समयके भी कुछ संघोंका वर्णन करके इस लेखको समाप्त करेंगे।
तारनपन्थ! इस पन्थके या संघके प्रवर्तक तारनस्वामी नामके एक साधु हो गये हैं। रियासत टोंक ( राजपूताना ) के सेमरखेड़ी नामक ग्राममें विक्रम संवत् १५०५ में इनका जन्म हुआ था और १५७२ में इनकी मृत्यु हुई । यह पन्थ दिगम्बर सम्प्रदायका हे परन्तु इसमें प्रतिमापूजाका निषेध है-केवल जेनशास्त्रोंकी पूजा होती है। तारनस्वामी छोटे छोटे १४ ग्रन्थ बना गये हैं जो एक अद्भुत भाषामें है। उसे न हिन्दी, न संस्कृत और न प्राकृत कह सकते हैं-सबकी खिचड़ी है । अर्थावबोध भी उससे नहीं होता। इन्हीं ग्रन्थोंको तारनपंथी विशेषतया पूजते हैं पर अर्थ समझनेकी ज़रूरत नहीं समझते। विद्वानों और साधुसम्प्रदायके अभावसे इस पंथने कुछ उन्नति न की। इसके माननेवाले मध्यप्रदेशके सागर, जबलपुर, दमोह, हुशंगाबाद, छिन्दवाड़ा आदि जिलों में, ग्वालियर, टोक और भोपाल रियासतमें, बुन्देलखण्डके कुछ भागमें और खानदेशके कुछ स्थानों में पाये जाते हैं । इनकी मनुष्यसंख्या ८-९ हज़ारके लगभग है । परवार, असाटी, गोलालारे, चरनागरे, अजुध्यावासी और दोसखे परवार, इन छह जातियों में इसके उपासक हैं ।*
* इस पंथ के विषयमें विशेष जाननके लिए जैनहितैषीके आठवें और नववें वर्षकी फायल देखना चाहिए।