Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1915 Book 11 Jain Itihas Sahitya Ank
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference
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શ્રીહરિભદ્રસૂરિકે જીવન-ઈતિહાસકી સંદિગ્ધ બા. ૪૯ में ही सिद्ध होता है, क्यों कि सिद्धसेन गाणका समय विक्रम की सप्तम शताब्दी माना जाता है।
कल्प टीका में भी आपका समय षष्ठ शतक लिखा है। ___ इत्यादि अनेक बलवत् प्रमाणों से यही प्रमाणित होती है कि संवत् ५८५ की साल ही ठीक ठीक आप के निर्वाण का समय है।
इस विषय में डाक्टर हर्मन जेकोबी साहब के विचार भी प्रकाशित क. रने योग्य हैं । जेकोबी साहब ने उपामतिभवप्रपंचा कथा की अंग्रेजी में जो लम्बी चौड़ी प्रस्तावना लिखी है उसमें हरिभद्रसूरिजी को सिद्धर्षि के समान कालीन सिद्ध करने के लिये अनेक चेष्टाएं की हैं। यदि उस सारी प्रस्तावना की समालोचना की जाय तो एक बड़ा ग्रन्थ बन जाय, इस लिये उस में हरि भद्रसूरि को अर्वाचीन ठहराने के लिये आपने जो जो प्रमाण पेश किये हैं उन्हीं के बारे में कुछ लिखता हूँ। ___ जेकोबी साहब ने उपमितिलव प्रपंचा कथा के प्रथम प्रस्ताव के वर्णन से सिद्धर्षि को अपने धर्मबोधकर गुरु आचार्य हरिभद्र के समकालक होने का जो दावा किया है उस का खंडन मै ने उसी प्रस्ताव के पाठ से पहले ही कर दिया है। आगे चल कर डा. साहब उसी ग्रन्थ ( उपमितिभव प्रपंचा कथा) की प्रशस्ति के श्लोकों से अपने मत की पुष्टि करते हैं । उन्होंने
" यः संग्रहकरणरतः सदुपग्रहनिरतबुद्धिरनवरतम् । आत्मन्यतुलगुणगणैर्गणधरबुद्धिं विधापयति ॥१२॥ बहुविधमपि यस्य मनोनिरीक्ष्य कुन्देन्दुविशदमद्यतनाः। मन्यन्ते विमलधियः सुसाधुगुणवर्णकं सत्यम् ॥१३॥ उपमितिभवप्रपच्चा कथेति तच्चरण रेणुकल्पेन । गीर्देवतया विहिताभिहिता सिद्धाभिधानेन ।” ॥१४॥ इन श्लोकों को हरिभद्रसूरिजीकी स्तुति समझकर जो अंग्रेजी में अर्थ किया है उसका हिन्दी अनुवाद निम्नलिखित है-" जो हरिभद्र ग्रन्थ रचने में आनंद मानते हैं तथा सत्य बात को सहाय देने से अपने मनमें खुश होते हैं, तथा जो अपने अप्रतिमगुणोंसे खुद गण होवे ऐसा भास देते हैं ॥१२॥ जिन के मनके भाव जुदे २ भी चन्द्र तथा श्वेत कमल के जैसी शुद्ध चलकती निर्म