Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1915 Book 11 Jain Itihas Sahitya Ank
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference
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શ્રીહરિભદ્રસૂરિકે જીવન-ઇતિહાસકી સ'દિગ્ધ ખાતે
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के मन को देखके निर्मल बुद्धिवाले आधुनिक लोग अनेक प्रकार के भी उतम साधुओं के गुण वर्णन को सत्य मानते हैं ।। १३ ।। उस दुर्गस्वामी के चरण की रज तुल्य मुझ सिद्धर्षि ने सरस्वती की बनाई हुई उपमितिभवप्रपञ्चा कथा कही " ॥ १४ ॥
आगे चल कर डाक्टर साहब इस दलील को पेश करते हैं कि बौद्धसम्मत प्रत्यक्ष प्रमाण की व्याख्या में हरिभद्रसूरि ने धर्मकीर्तिका अनुकरण किया है और धर्मकीर्ति का समय विक्रम की सातवीं सदी है इस लिये वे अर्वाचीन है। यह डाक्टर साहब का लिखना यद्यपि ठीक है, क्योंकि धर्म कीर्तिका अनुकरण ही क्यों उसका नाम तक उन्होंने शास्त्रवार्तासमुच्चय में दाखिल किया है, पर उसका विक्रम की सातवी सदी में हाना संदिग्ध है । सतीशचन्द्र विद्याभूषण बगैरह ने जिन धर्मकीर्ति का समय सप्तम शतक विनिश्चित किया है वे धर्मकीर्ति हरिभद्रस्मृत धर्मकीर्ति से भिन्न हैं । धर्मकीर्ति नाम के दो तीन आचार्य हुए हैं ऐसा ऐतिहासिक प्रमाणों से भी सिद्ध होता है ।
फिर जेकोबी साहब की स्वमत पोषक यह युक्ति है कि " हरिभद्रसूरिजी ने अपने षड्दर्शनसमुच्चय में ' रूपाणि पक्षधर्मत्वं सपक्षे विद्यमानता । विपक्षे नास्तिता हेतोखं त्रीणि विभाव्यताम् । इस श्लोक में 'पक्षधर्मत्व ' शब्द का उपयोग किया है सो वह आपकी अर्वाचीनताको सिद्ध करता है क्यों कि पुराने न्यायग्रन्थों में ' पक्षधर्मत्व ' शब्द का व्यवहार नहीं था, ग्रन्थकर्ता उसका प्रतिपाद्य विचार शब्दान्तरों से प्रदर्शित करते थे। " जेकोबी साहब की यह दलील सर्वथा कमजोर है । पुराने जमाने में भी ' पक्षधर्मत्व' शब्द का प्रयोग होता था । देखिये, दिग्नागाचार्य कृत — 'न्यायप्रवेशक' का हेतु त्रैरूप्यप्रतिपादक " पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्त्वं विपक्षे चासत्त्वमेव " यह सूत्र ।
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हरिभद्रसूरिजी ने अष्टक
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डाक्टर महोदय का यह भी कहना है कि प्रकरण में शिवधमोत्तर ग्रन्थ की शाख दी है वास्ते अर्वाचीन सिद्ध होते हैं क्यों कि शिवधर्मोत्तर विना साल का होने से ज्यादह पुराना नहीं होना चाहिये ।" आश्चर्य ! प्रोफेसर जेकोबी साहब जैसे विद्वान् नर भी भूलके चक्कर में फेंस जाते हैं ! विना सालका ग्रन्थ ज्यादा पुराना नहीं हो सकता ! क्या