Book Title: Jain Shwetambar Conference Herald 1915 Book 11 Jain Itihas Sahitya Ank
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference
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श्रीन . . १२८.
को अपने दीक्षागुरु लिखते हैं और ' तत्रोद्घाटे ' इत्यादि प्रबन्ध हरिभद्र को दीक्षादायक लिखे यह उस का भ्रम है या नहीं ? प्रभावकचरित भी यह कहता है कि सिद्धर्षि के दीक्षागुरु गर्षि थे। देखिये-"आसीनिर्वृतिगच्छे च सूराचार्यों धियां निधिः। तद्विनेयश्च गर्गपिरहं दीक्षागुरुस्तव"।। __और भी सुनिये-हारेभद्रसूरि विद्याधर कुल के आचार्य थे ऐसा आवश्यकबृहद्वृत्ति से ज्ञात होता है, और सिद्धर्षि आप निवृति कुल में दीक्षित हुए ऐसा उनकी उपमितिभवप्रपंचा कथा कह रही है । प्रभावकचरित का भी यही कथन है तो अब आप ही सोचे कि इन दोनों महानुभावों का दीक्षासंबन्ध से गुरुशिष्य भाव कैसे हो सकेगा? अच्छा आगे बढ़िये। अब "तदागग्गायरिएण" इत्यादि पाडिवालीयगच्छ की पट्टावली के पाठ की समालोचना की जाती है। 'तदा' इत्यादि से यह वृत्तान्त सूचित होता है कि-"सिद्धर्षि बार २ बौद्ध लोगों के पास चले जाते थे इस लिये गर्गाचार्यजी ने विजयानन्दसूरि के परंपराशिष्य हरिभद्रसूरि को प्रार्थना की कि 'सिद्ध ठहरता नहीं है ' तब हरिभद्रसूरिने उन के प्रतिबोध के लिये ललितविस्तरा नामक चैत्यवन्दनवृत्ति बना के गर्गाचार्य को देदी और आपने अनशन करलिया। गर्गाचार्यजीने वह वृत्ति सिद्धर्षि को दी, उससे वह प्रतिबोध पाके आचार्य हरिभद्र की प्रशंसा करने लगे." वास्तव में उपर्युक्त हकीकत भी पट्टावली लेखकने नाम सादृश्यजनित भ्रम से लिख दी है । यह बात आवश्यक वृत्ति से निःसंदेह प्रमाणित हो चुकी है कि ललितविस्तरादि कर्ता हरिभद्रसूरि विद्याधर कुलके थे फिर चन्द्रकुल के विजयानंदसूरि के परंपराशिष्यहरिभद्रसूरि को ललितविस्तरा के कर्ता लिखना भ्रमविना कैसे होसकता है ? खैर । सिद्धर्षि जी की इस बारे में क्या सम्मति है सो भी सुन लीजिये । वे अपनी उपमितिभवप्रपश्चामें यों कहते हैं कि"ये च मम सदुपदेशदायिनो भवन्तः सूरयस्ते विशिष्टज्ञा एव, यतः कालव्यवहितैरनागतमेव तैतिः समस्तोपि मदीयवृत्तान्तः, स्वसंवेदनसिद्धमेतदस्माकमिति”. तात्पर्य इस का यह है कि-"जो मेरे सदुपदेश देनेवाले आचार्य भगवान् थे वे निश्चयकरके विशिष्ट ज्ञानी थे, क्यों कि कालसे व्यवधानवाले होके भी उन्होंने मेरा सर्व वृत्तान्त अनागत कालमें ही जानलिया, यह बात हमारे स्वसंवेदन (अनुभव) सिद्ध है।".