Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 16
________________ जैन-शिलालेख संग्रह [१५] सुविहित श्रमणोंके निमित्त शास्त्र-नेनके धारकों, ज्ञानियों और तपोबलसे पूर्ण ऋपियोंके लिये (उसके द्वारा) एक संघायन (एकत्र होनेका भवन ) बनाया गया । अर्हत्की समाधि (निपद्या) के निकट, पहाडकी ढालपर, बहुत योजनोसे लाये हुए, और सुन्दर खानोंसे निकाले हुए पत्थरोंसे, अपनी सिंहप्रस्थी रानी 'सृष्टी' के निमित्त विनामागार [१६] और उसने पाटालिकाओमें रत्न जटित स्तम्भोको पचहत्तर लाख 'पणों (मुद्राओं) के व्ययसे प्रतिष्ठापित किया । वह (इस समय) मुरिय कालके १६४ वें वर्षको पूर्ण करता है। ___ वह क्षेमराज, वर्द्धराज, भिक्षुराज और धर्मराज है और कल्याणको देखता रहा है, सुनता रहा है और अनुभव करता रहा है। [१७] गुणविशेष-कुशल, सर्व मतोंकी पूजा (सन्मान) करनेवाला, सर्व देवालयोका संस्कार करानेवाला, जिसके रथ और जिसकी सेनाको कभी कोई रोक न सका, जिसका चक्र (सेना) चक्रधुर (सेना-पति) के द्वारा सुरक्षित रहता है, जिसका चक्र प्रवृत्त है और जो राजविश-कुलमें उत्पन्न हुआ है, ऐसा महाविजयी राजा श्रीखारवेल है। इस शिलालेखकी प्रसिद्ध घटनाओंका तिथिपत्रवी. सी. (ईसाके पूर्व) " १९६० (लगभग) ... केतुभद् " ...४६० (लगभग)... कलिगमे नन्दशासन " [२३० .... अशोककी मृत्यु] " [२२० (लगभग) .. कलिंगके तृतीय-राजवश का स्थापन] " १९७ ... ... सारवेलका जन्म " [१८८ ... ... मौर्यवंशका अन्त और पुष्यमित्रका राज्य प्राप्त करना] 27 १८२ ... सारवेलका युवराज होना ., [१८० (लगभग ... सातकर्णि प्रथमका राज्य प्रारम्भ]

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