Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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हाथीगुफाका लेख [१०][][] मानः (१) उसने महाविजय-प्रासाद नामक राजस- निवास, अड़तीस सहस्रकी लागतका बनवाया।
दसवें वर्षमें उसने पवित्र विधानोद्वारा युद्धकी तैयारी करके देश “जीतनेकी इच्छासे, भारतवर्ष (उत्तरी भारत) को प्रस्थान किया ।... केश (१) से रहित ....... उसने आक्रमण किये गये लोगोके मणि और रलोको पाया।
[११] (ग्यारहवें वर्षमें) पूर्व राजाओके बनवाये हुए मण्डपमें, जिसके पहिये और जिसकी लकड़ी मोटी, जची और विशाल थी, जनपदसे प्रतिष्ठित तेरहवें वर्ष पूर्वमें विद्यमान केतुभद्रकी तिक्त (नीम) काष्ठकी अमर मूर्तिको उसने उत्सवसे निकाला।
वारहवें वर्ष में........"उसने उत्तरापथ (उत्तरी पक्षाव और सीमान्त प्रदेश) के राजाओंमे त्रास उत्पन्न किया।
[१२] ........और मगधके निवासियोमें विपुल भय उत्पन्न करते हुए उसने अपने हाथियोको गंगा पार कराया और मगधके राजा वृहस्पतिमित्रसे अपने चरणोकी बन्दना कराई ...........(वह) कलिंगजिनकी मूर्तिको जिसे नन्दराज ले गया था, घर लौटा लाया और अंग और मगधकी अमूल्य वस्तुओको भी ले आया।
[१३] उसने.........अठरोल्लिखित (जिनके भीतर लेख खुदे हैं) उत्तम शिखर, सौ कारीगरोको भूमि प्रदान करके, बनवाये और यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि वह पाण्डवराजसे हस्ति नावोंमें भरा कर श्रेष्ठ हय, हस्ति, माणिक और बहुतसे मुक्का और रन नजरानेमें लाया। [१४] उसने......"वशमें किया। फिर तेरहवें वर्ष में व्रत पूरा होनेपर (खारवेलने) उन याप-ज्ञापकोंको जो पूज्य कुमारी पर्वतपर, जहाँ जिनका चक्र पूर्णरूपसे स्थापित है, समाधियोंपर याप और सेमकी क्रियाओमे प्रवृत्त थे; राजभृतियोंको वितरण किया। पूजा और अन्य उपासक कृत्योके क्रमको श्रीजीवदेवकी भाँति खारवेलने प्रचलित रखा।