Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 13
________________ teriya ma अगस-निकंतरिय उपादायति [1] खेमराजा स वढराजा स भिखुराजा धमराजा पसंतो सुनतो अनुभवतो कलाणानि [ १७ ]........गुण-विसेस-कुसलो सवपासंडपूजको सव-देवायत - नसंकारकारको [ अ ] पति-हत- चकि- वाहिनि बलो चकधुर - गुतचको पवतचको राजसि-बस-कुल-विनिश्रितो महा विजयो राजा खारवेल - सिरि अनुवाद -- [१] अर्हतोंको नमस्कार । सर्व सिद्धोंको नमस्कार । ऐलमहाराज महामेघवाहन, चैत्रराजवंशवर्धन, प्रशस्तशुभलक्षणसम्पन्न, अखिल-देशस्तम्भ, कलिङ्गाधिपति श्री खारवेलने [२] पन्द्रह वर्ष तक श्रीसम्पन्न और कढार (गन्दुमी ) रंगवाले शरीरसे कुमार-क्रीड़ाएँ कीं । बादमें लेख, रूपगणना, व्यवहार विधिमें उत्तम योग्यता प्राप्त करके और समस्त विद्याओंमें प्रवीण होकर उसने नौ वर्षोंतक युवराजकी भाँति शासन किया । जब वह पूरा चौबीस वर्षका हो चुका तब उसने, जिसका शेष यौवन विजयोसे उत्तरोत्तर वृद्धिंगत हुआ, तृतीय [३] कलिंगराजवंशमें, एक पुरुषयुगके लिये महाराज्याभिषेक पाया । अपने अभिषेकके पहले ही वर्षमें उसने बातविहत ( तूफानके बिगाडे हुए) गोपुर ( फाटक ), प्राकार ( चहारदीवारी ) और भवनोंका जीर्णोद्धार कराया; कलिङ्ग नगरीके फव्वारेके कुण्ड, इपितल्ल ( १ ) और तड़ागोके बाँधोको वैधवाया; समस्त उद्यानोंका प्रतिसंस्थापन कराया और पैतीस लक्ष प्रजाको सन्तुष्ट किया । [ 2 ] दूसरे वर्ष में, सातकर्णिकी चिन्ता न करके उसने पश्चिम देशको चहुत-से हाथी, घोडो, मनुष्यों और रथोंकी एक बढी सेना भेजी । कृष्णचेण नदीपर सेना पहुँचते ही, उसने उसके द्वारा भूषिक नगरको सन्तापित किया। तीसरे वर्ष में फिर [५] उस गन्धर्व-वेदमें निपुणमतिने दंप, नृत्य, गीत, वाद्य, सन्दर्शन, उत्सव और समाजके द्वारा नगरीका मनोरञ्जन किया ।

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