Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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जैन-शिलालेख-संग्रह और चौथे वर्षमें, विद्याधर-निवासोको, जो पहले कभी नष्ट नहीं हुए थे और जो कलिश के पूर्व राजाओके निर्माण किये हुए थे...."उनके मुकुटोंको व्यर्थ करके और उनके लोहेके टोपोके दो सण्ड करके और उनके छन,
[६] और भृगारो (सुवर्णकलशो) को नष्ट करके तथा गिराकर, और उनके समस्त बहुमूल्य पदार्थो तथा रतोका हरण करके, उसने समस्त राष्ट्रिको और भोजकोंसे अपने चरणोकी बन्दना कराई।
इसके बाद पाँचवें वर्षमे उसने तनसुलिय मार्गसे नगरीमें उस प्रणाली (नहर) का प्रवेश किया जिसको नन्दराजने तीन सौ वर्ष पहले खुदवाया था।
छठे वर्षमें उसने राजसूय-यज्ञ करके सब करोको क्षमा कर दिया, [७] पौर और जानपद (संस्थाओं) पर अनेक शतसहन अनुग्रह वितरण किये।
सातवें वर्ष राज्य करते हुए, वन घरानेकी सृष्टि (प्राकृत=धिसि) नाम्नी गृहिणीने मातृक पदको पूर्ण करके सुकुमार [1]""(1)
आठवें वर्ष में उसने (खारवेलने ) वढी दीवारवाले गोरथगिरिपर एक बढी सेनाके द्वारा
[0] आक्रमण करके राजगृहको घेर लिया। पराक्रमके कार्योंके इस समाचारफे कारण नरेन्द्र [नाम] अपनी घिरी हुई सेनाको छुड़ानेके लिये मथुराको चला गया।
(नवें वर्ष में ) उसने दिये..... पल्लवयुक्त [९] कल्पवृक्ष, सारथीसहित हय-गज-रथ और सबको अग्निवेदिकासहित गृह, मावास और परिवसन । सव दानको ग्रहण कराये जानेके लिये उसने ब्राहाणोंकी जातिपंक्ति (जातीय सस्थाओ) को भूमि प्रदान की। अर्हत्... व.... न... • गिया (?)
१ राजधानीकी संस्थाको 'पौर' और ग्रामोंकी सस्थाको 'जानपद' कहते थे। वर्तमान समयमे हम इन्हे 'म्युनिसिपल' और 'डिस्ट्रिक्ट-बोर्ड के नामसे पुकार सकते हैं।