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नररत्न मोतीशाह
( लेखक - श्रीयुत भंवरलालजी नाहटा ) बंबई के सुप्रसिद्ध श्रीमन्त, सफल व्यापारी, दानवीर नाहटा गोत्रीय सेठ श्री मोतीशाह ( मोतीचंद अमीचंद्र ) के नाम से प्रायः समस्त जैन समाज परिचित है। आपकी यशः पताका आज भी श्री सिद्धक्षेत्र - शत्रुंजय और बंबई में फहराती है और चिर काल तक फहराती रहेगी। तीन वर्ष पूर्व शत्रुंजयस्थ 'मोतीशाह सेठकी टौंक' के शताब्दी महोत्सव पर ट्रस्टी लोगों ने स्मारकरूप से एक ग्रन्थ, जिसमें मोतीशाहके वंश और मन्दिरों का इतिहास हो, प्रकाशित करने का विचार किया था, किन्तु खेद है कि अभी तक तो उस कीर्तिकल्पलता का दर्शन नहीं हुआ है । आशा है श्री. मोतीचंद गिरधरदास कापड़िया महोदय, जिन्होंने यह कार्य संपन्न करने की स्वीकृति दी थी, और ट्रस्टी महोदय शीघ्रातिशीघ्र शिलालेख, प्रशस्तियां, राजकीय पत्रों के साथ उनका संपूर्ण जीवनचरित्र प्रकाशित करने की चेष्टा करेंगे ।
मोतीशाह सेठ का जन्म सं. १८३८ में हुआ था । साधारण स्थिति से एक बंबई के सर्वोच्च व्यवसायी के पद को प्राप्त करना आपकी सच्चरित्रता, और व्यापारदक्षता का उत्तम उदाहरण है । आपने समुद्री व्यवसाय में काफी सफलता प्राप्त की थी। आपके द्वारा अपने जहाजों से माल का आयातनिर्यात का व्यापार होता था । धर्मकार्य में आपने लाखों रुपये खुले हाथ व्यय किये हैं । बंबई के मंदिर, धर्मशाला और पांजरापोल इत्यादि आपके ही न्यायोपार्जित धन और आत्मभोग के सुपरिणाम हैं। पालीताना की धर्मशाला आपने सं. १८८७ में निर्माण कराके सं. १८८८ में कुंतासर के जबरदस्त पहाड़ी खड्डे को पूर्ण करके पर्वत के दो उत्तुंग शिखरों के बीच में मन्दिर बनाकर एक कर दिया । जो कार्य चौथे आरे में नहीं हुआ था - मोतीशाहने उसे इस काल में करके बतला दिया। कहा जाता है कि एक हांडी पानी के लिये चार चार आना दिया गया था । बड़े बड़े पर्वतखण्डों को काट कर गड्ढे को परिपूर्ण कर दिया । संवत् १८९२ में आपका स्वर्गवास हो जाने पर आपके सुपुत्र धर्मात्मा सेठ खेमचंद ने संवत १८९३ में मन्दिर की प्रतिष्ठा करवाई । यह प्रतिष्ठा माघ सुदि १० के दिन महान समारोह से खरतरगच्छाचार्य श्रीजिनमहेन्द्रसूरिजी के करकमलों से हुई थी । સેકુંજે જે જિષ્ણુગુણ અભિન દિયા, વદિયા સુંદરૂ રૂગેહ. ૨૪ અય સિરિત્રપરવાડિ વીવાલા, જો પઇ જો મુણુઇ જે કહુતિ; વિજયવંતા નરનારિÀત્રુજિ લ, જાત્રહ નિમ્મલ તેલહુતિ. ૨૫ ॥ ઇતિ શ્રી સેત્રુંજય ચૈત્ર પરિપાટી વીવાલા સમાપ્ત ૫
उस समय
મે ઉપર શત્રુજ્ય-ચૈત્ય-પરિપાટી મારા હસ્તલિખિત પુસ્તકાની શેાધના ચાલુ પ્રયાસમાં હાથ લાગી તે ઉતારી લીધી છે. આ કૃતિ પ્રાચીન છે અને તે પ્રાચીન ભાષાના નમુના તરીકે પણ મહત્ત્વની છે. તેના ાસવત આપ્યા નથી તેમ રચના પોતાના નામના પણ નિંદે શ કયા નથી. તેમાં શત્રુ ંજય તીર્થ માં આવેલાં ચૈત્યો વગેરેનો ઉલ્લેખ છે,
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