Book Title: Jain Satyaprakash 1938 02 SrNo 31
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 9
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७] સમીક્ષાભ્રમાવિષ્કરણ [२४३] र्थपर्यवसायक ‘नो कप्पइ' शब्दो मुकेला छे. आनिषेधसूत्रने मांसभक्षणविधायक विधिसूत्र तरीके वर्णवQ ते खरेखर तेजोराशिने तमोराशि कहेवा जेवं छे। लेखकनी दलिल आ उपर्युक्त कल्पसूत्रनो पाठ, कोई पण व्यक्ति, कदाचित् पण, आ नव रसविगइओ न खाय एम सर्वथा निषेधतो नथी. किंतु निमित्तविशेषो बतावीने निषेधे छे. माटे आ उपर्युक्त प्रसंगमां नव रसविगइओ न वापरवी अर्थात् आथी अतिरिक्त प्रसंगमां वापरवी एम अर्थापत्तिथी मांसभक्षणविधायक विधिसूत्र तरीके केम न मानी शकाय? दलिलनी पोकलता अर्थापत्तिथी अर्थान्तरनो आक्षेप करनार मानवीने अर्थापत्तिनी अन्यथानुपपद्यमानत्वरूप जन्मभूमिनुं निरीक्षण करवानो जरूर छे. यथा-पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते' अत्र रात्रिभोजनं विना पीनत्वमनुपपद्यमानं सत् रात्रिभोजनमाक्षिपति । ___ कोई वक्ताना बदनारविंदमांथी वचनावली निकळी के लष्ट पुष्ट बनेल देवदत्त दिवसे खातो नथी, आ सांभळी निकटवर्ती श्रोता विचारे छे के आहार सिवाय लष्ट पुष्टपणु होई शकतुं नथी. अने दिवसे खावानी ना पाडे छे. माटे आ वाक्य एम जणावे छे के-देवदत्त रात्रे खाय छे । प्रस्तुतमां अन्यथानुपपद्यमानत्व नथी [बीजी रीते पाठy संगत न थर्बु तेम नथी,] अर्थात्-प्रस्तुत पाठनो प्रत्येक ध्वनि हेतुता गर्भित छे जे अमो आगळ वांचकवर्गनी आगळ मुकीशुं । अन्यथानुपपद्यमानत्व सिवाय पण जो अर्थापत्ति इष्ट करी लेवामां आवे तो पोताना ज दिगम्बर ग्रन्थोमां अनेक धुंचवणना जाळाओमा धुंचावु पडशे, जेमके-श्रावकने आश्रीने स्थूलप्राणातिपातविरमण ज्यां दिगम्बर ग्रन्थमां बतावेल होय त्यां सूक्ष्म जीवोने मारवा एम, अर्थापत्तिथी ते शास्त्रने हिंसाविधायक मानवें पडशे । प्रस्तुत पाठ विगइओने शा माटे निषेधे छे ? मुनिवरो माधुकरीवृत्तिथी आहार लेनार होय छे. अतएव गृहस्थने त्यां कुदरते जे जे आहार मळे ते लावीने वापरवो जोईए आम छतां विगइओने शा माटे बाद करी ? आ विगईओ चित्तनी विकृति करी दुर्गतिमां दोरी जाय छ. जुओ महापुरुषनां वचनामृतो विगई विगई भीओ विगइगयं जो य भुंजए साहू । विगई विगइसहावा विगई विगई बला नेइ ॥१॥" [विकृति विकृतीतो विकृतिगतं यश्च भुक्ते साधुः । विकृतिविकृतिस्वभावा विकृतिर्विगतिं बलान्नयति ॥१॥] For Private And Personal Use Only

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