________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
એક હ
દિગમ્બર શાસ્ત્ર કંસે બને?
पुष्पपूजाका विधान है जो पं० बनारसीदाससे ही चले हुए मतसे प्रतिकुल है । अस्तु ।
श्वेताम्बरीय ग्रन्थोंको अपनाना यह तो दिगम्बर समाजमें चला आता है । किन्तु पं० बनारसीदासजीने इसके हीन्दी कवित्तमें भी अपने दिग - म्बरी स्वभावका परिचय कराया है और भोलीभाली जनता को धोखे में डालनेका प्रयत्न किया है। देखिये
[२७१]
46
' तेरापंथी "
.१ पं० नाथुराम प्रेमी संपादित ' बनारसी विलास' के पृष्ठ ६६ पर सिन्दूर प्रकरण मूल के 'भवारण्यं मुक्त्वा पदवाले ९८ वे श्लोकका अनुवाद नहीं दिया है, किन्तु उस स्थानमें तीन और कवित्त दे दिए हैं। जिनके बारेमें संपादक महाशयको लिखना पडा है कि- " नीचे लिखे तीन कवितों के मूल श्लोक नहीं मिले।” दिगम्बर विद्वानोंने भाषा ग्रंथोमें किस प्रकार गडबडाध्याय चलाया है उसका यह नमुना मात्र है । तेरापंथी दिगम्बर विद्वानोंने पुराणोंकी भाषामें भी इसी नीतिले काम लिया है।
२ ग्रन्थप्रणेता आचार्य श्वेताम्बर होनेपर भी भाषाकारने प्रशस्तिमें उनको दिगम्बर लिख दिया है। दोनोंकी अंतिम प्रशस्तिसे इसका ठीक खुलासा हो जाता है ।
मूल - सोमप्रभाचार्यप्रभा च यन्न, पुंसां तमः पंकमपाकरोति ॥
तदप्यमुष्मिन्नुपदेशलेशे, निशम्यमानेऽनिशमेति नाशम् ॥ ९९ ॥ अभजदजित देवाचार्य पट्टोदयाद्रि-धुमणि विजयसिंहाचार्यपादारविन्दे ॥ . मधुकरसमतां यस्तेन सोमप्रभेण, व्यरचि मुनिपराज्ञा सूक्तमुक्तावलीयम्
॥ १०० ॥ भाषा - पर निंदा त्यागिकरु ॥९८॥ आलस त्यागि जागि नर चेतन ॥ ९९ ॥ जैनवंशसरहंस दिगम्बर मुनिपति, अजितदेव अतिआरज | ताके पटवादिमतभंजन, प्रगटे विजैसेन आचारज ॥
ताके पट भये सोमप्रभ, तिन्ह यह ग्रंथ कियो हित कारज ।
ताके पढत सुनत अवधारत, होहि सुरूप जे पुरिष अनार ॥ १०० ॥ कवित्त दोहा -कौरपाल बनारसी, मित्रजुगल एकचित्त ।
तिन ग्रंथ भाषा कियौ, बहुविध छंद कवित्त ॥ १०१ ॥
( अनुसंधान २७२ मा पानामा )
For Private And Personal Use Only
३ जो जिनंद पूजै फुलनिसौं, सुरनैनन पूजा तसु होइ । वंदे भावसहित जो जिनवर, वंदनोक त्रिभुवनमें सोइ ॥ जो जिन सुजलकरे जब ताकि, महिमा इंद्रकरहि सुरलोय |
जो जिनध्यान करत बनारसी, ध्वावहि मुनि ताके गुण जोय ॥ ११॥ कवित्त ॥ जिनपूजाष्टक, बनारसीविलास पृ० ७९ में भी पुष्प (पुहप) पूजा लिखी हैपुप चाप धरि पुहपसर, धारी मन्मथवीर । याते. पूजा पूपसौं, हरै मदनसर पीर ॥५॥