Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 03 to 04
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 14
________________ [३] दोष न गुणाय । तेम ज एवा पत्रोनो कोई खास वर्तमान समाचारनी साथै संबंध होतो नथी जेथी महिना-बेमहिना आगळ-पाछळ थतां तेमांनुं लखाण उतरी गएलुं के वासी थई गएलुं मनाय । मतलब के आवा पत्रो ग्राहकोनी साथै समयनी दृष्टिए बंधाएला होता नथी, ए वात पण लक्ष्य-बहार न रहेवी जोईए । तेम छतां जैनसाहित्य संशोधन चालू अनियमिततानो हुं आथी बचाव करवा नथी मांगतो, कारण के आनी अनियमितता,ते, अनियमिततानी व्याख्या करतां घणी वधारे पडती थई गई छे, ए मारे स्पष्ट कबूल करवुं ज जोईए । * # * * अस्तु । आम अनियमितताना चीलामां जेम तेम गबडतुं आ पत्रनुं रंगसियुं गाडुं आजे बीजा खण्डना छेले नाके वी पच्युं छे अने तेम थवाथी ग्राहकोनी साथे थएला करारमांथी कार्यालय मुक्त थाय छे। हवे प्रश्न मात्र भविष्यना विचारनो छे । जेम वाचकोने पत्रनी अनियमितता खटके छे तेम मने अने मारा साहित्यप्रिय स्नेहिओने पण ते खूब . खटके छे । आवी रीते वर्षे दोढ वर्षे जेम तेम एक अंक प्रकट थाय तेना करतां तो एने सर्वथा बन्ध करी देवुं सारं, एवीपण केटलाक मित्रोनी सलाह मळ्या करे छे । पण ए सलाह मने जरा कडवी लाग्यां करे छे । कारण के मारी मनोवृत्तिनुं मुख्य वळण प्रारंभथी ज जैन साहित्यनी सेवा तरफ वळेलुं होवाथी, ए सेवाना एक मुख्य साधन रूप आ पत्रने सर्वथा बन्ध करी देवानी कल्पना मने आघात कारक लागे ए स्वाभाविक छे । तेथी पत्रने चालू राख ए तो मारी प्रबल इच्छा छे ज । परंतु त्रीजा खंडनो प्रारंभ हवे त्यारे ज कराशे ज्यारे अत्यार सुधी अनुभवाती अव्यवस्था अने अगवडतानो कोईक संतोष कारक निकाल आवशे । आशा तो रहे छे के ए समय पण जल्दी प्राप्त थशे । वैशाख – सं. १९८१. भारत जैन विद्यालय, पूना सीटी. } Aho ! Shrutgyanam ** - संपादक *

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