Book Title: Jain Sahitya Sanshodhak Khand 02 Ank 03 to 04
Author(s): Jinvijay
Publisher: Jain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna

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Page 12
________________ संपादकीय निवेदन बीजा खंडनो बीजो अंक ज्यारे गया वर्षना ज्येष्ठ मासमां प्रकट थयो हतो त्यारे त्रीजा अंकनुं पण केटलुक मुद्रण थई चुक्युं हतुं अने ते पछी थोडा ज समयमां ते प्रकट करी शकाशे एवी आशा रहेती हती तेथी तेवी सूचना पण ए बीजा अंकना मुखपृष्ठ उपर आपी देवामां आवी हती । पण धार्या प्रमाणे तेमांनु कशु थयु नहि। अनेक आन्तर-बाह्य अगवडोना सबबे लगभग आखा वर्ष जेटलो लांबो समय व्यतीत थई गयो-पण ए अंक ग्राहकोने पहोंचाडी शकायो नहि । छेवटे आजे त्रीजो अने चोथो-एम बंने अंको एक साथे ज रवाना करवानो प्रसंग प्राप्त थयो छ । नियतरीते काम करी शकवानी अगवडनो विचार करतां मारी जातने तो एथी पण कांईक आश्वासन मळे छे अने आम विलंबे-पण आजे बीजा खंडना ग्राहकोना ऋणमांथी मुक्त थवानो जे अवसर मने मळे छे ते जाणी मारा दिलनो भार काईक हलको थाय छे । जैन साहित्य संशोधकना ग्राहकोनी संख्या आजे घणी ओछी छे । एटली बधी ओछी छे के तेनी पासेथी आवता वार्षिक मूल्यवडे मात्र एक अंकनो प्रेसचार्ज पण पूरो थई शकतो नथी । एटली ओछी संख्याना आधारे सामान्य प्रकारचें मासिक पत्र पण चलाववानो कोई उद्योग न करे तो पछी आ प्रकारना प्रौढ, दलदार, अने खूब खर्चाल पत्रना प्रकाशननो तो मनोरथ पण कोण करी शके । वस्तुस्थिति आवी होवा छतां पण आजे आ पत्र जे बीजा खण्डनी समाप्तिनी सीमाए पहुंचे छ तेनु कारण फक्त एना पोषक, पालक, के संरक्षक, जे कहूं तेभाई श्रीहरगोविंददास रामजीनी निष्काम दानशीलता अने बहुजन-दुर्लभ सात्त्विक सज्जनता छ । ए समानशील बन्धुनी सौहार्द-पूर्ण प्रेरणा अने विकल्प-वगरनी द्रव्यसहायताना प्रतापे ज आ पत्रे जन्म धारण कयु छ अने मात्र एक अनियमितताना रोगने छोडीने बाकी बधी सुंदर रीते बे वर्षकीर्तिवन्त अने आकर्षक जीवन पसार कर्यु छे. सामान्यरीते आ प्रकारना उच्चकोटिना पत्रोना वाचको अने ग्राहको सर्वत्र ओछा ज होय छ। तेमां वळी आ पत्र तो एक अल्प संख्यक समाजवाळा धर्मना तात्त्विक विषयोने अनुलक्षीने ज खास पोतार्नु कार्यक्षेत्र खेडतुं होवाथी, एना ग्राहकोनी संख्या बहुलतानी आशा राखवानुं तो कशु ज प्रलोभन न होई शके । छतां आ पत्रने पोताना निर्वाह-पुरता प्रबन्धनी तो समाज पासे आशा राखवानो हक्क होय ज-अने ते आशा पूरी करवी ए समाजनुं पण कर्तव्य होय ज । परंतु अद्यापि ए आशा पूरी थई नथी । एमां कांईक दोष मा कार्यालयनो पण खास छे ए मारे प्रथम ज कबूल करवू जोईए। कारण के एक तो पत्र नियमित रीते समय ऊपर प्रकट थतुं नथी अने बीजं, ग्राहको तरफथी आवता पत्रो विगेरेनो यथा समय संतोष कारक उत्तर विगेरे आपी शकातो नथी । आवा प्रबन्ध-शैथिल्यना लीधे घणा खरा जिज्ञासु ग्राहकोने निराशा थाय अने तेथी तेओ कंटाळी ग्राहक-श्रेणिमाथी पोतानु नाम बातल करावे एमां तेमनो जराए दोष काढी न शकाय । कार्यालय उपर आवता पत्रो भने प्रत्यक्ष थती मुलाखातो उपरथी मने ए तो चोक्कस खात्री थई छे के भत्यारे जे अल्पस्वल्प ग्राहक वर्ग आ पत्रनो रहेलो छे तेनो पत्र उपर खूब प्रेम छे अने पत्रने नियमित समये मेळववा अने वाचवा ते अति उत्सुक रहे छ । ए उत्सुकताना परिणामे घणा बन्धुओ तो अनेक प्रकारना उपालंभ भरेला पत्रो पण मारी उपर मोकली पोतानो पत्र उपरनो विशिष्ट अनुराग व्यक्त करे छे । हुं आ स्थळे ए Aho! Shrutgyanam

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