Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 6
Author(s): Gulabchandra Chaudhary
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 17
________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आगमेतर साहित्य से हमारा तात्पर्य उस साहित्य से है जो जैनागमों की, विषय और शैली की दृष्टि से, अनुयोग नामक एक विशेष व्याख्यान पद्धति के रूप में ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों से लिखा जाने लगा था। इसके आविष्कारक आचार्य आर्यरक्षित माने जाते हैं। अनुयोग पद्धति चार प्रकार से बतलायी गई है: १. चरणकरणानुयोग, २. धर्मकथानुयोग, ३. गणितानुयोग, ४. द्रव्यानुयोग । इनके विशेष विवेचन में न जाकर केवल इतना सूचित करना है कि चरणकरणानुयोगविषयक साहित्य औपदेशिक प्रकरणों के रूप में और गणितानुयोग और द्रव्यानुयोगविषयक साहित्य आगमिक प्रकरणों के रूप में जैन साहित्य के बृहद इतिहास के पूर्व भागों में निरूपित हो चुका है। यहाँ धर्मकथानुयोग के सम्बन्ध में ही कुछ कहना आवश्यक है। ___ 'धर्मकथानुयोग' का विषय विशुद्ध आचरण करनेवाले महापुरुषों की जीवनियाँ हैं। इसमें समाविष्ट विषयवस्तु एक समय जैन आगम के १२वें अंग दृष्टिवाद के चतुर्थ विभाग अनुयोग की विषयवस्तु' थी। वहाँ वह दो उपविभागों में विभक्त थी : १. मूल प्रथमानुयोग और २. गण्डिकानुयोग । मूल प्रथमानुयोग में अरहन्तों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्माण सम्बन्धी इतिवृत्त तथा शिष्य समुदाय का वर्णन समाविष्ट किया गया था और गण्डिकानुयोग में कुलकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि अन्य महापुरुषों का चरित्र था । मान्यतानुसार दृष्टिवाद अंग का विच्छेद हो गया था अतः उसका एक विभाग मनुयोग भी विच्छिन्न माना गया। आर्यरक्षित ने उसका उद्धार 'धर्मकथानुयोग' के अन्तर्गत किया, पर ईस्वी सन् के प्रारम्भ होते-होते वह भी विशीर्ण हो गया। पंचकल्पभाष्य' के अनुसार शालिवाहन नृप के समकालीन आचार्य कालक ( वीर० नि० ६०५ के लगभग) ने जैन परम्परागत कथाओं के संग्रहरूप में प्रथमानुयोग नाम से इस विशीर्ण साहित्य का पुनरुद्धार किया। वसुदेवहिंडी', १. समवायांग, सू० १४७, नन्दिसूत्र, सू० ५६. २. गा० १५१५-४९. ३. तस्य ताप सुहम्मसामिणा जंबूनामस्स पढमाणुओगे तित्थयरचक्वविदसारवंसपरूवणागयं वसुदेवचरियं कहियं ति । -वसुदेवहिंडी, प्रथम खण्ड, पृ० २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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