Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 8
________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश/भूमिका गया। कोश के कार्य में एक अवरोध आ गया। सन् १९९९ में दिल्ली चातुर्मासिक प्रवास में हमने कोश के अवरुद्ध कार्य को प्रारम्भ करने का चिन्तन किया किन्तु कोश के उपयुक्त सामग्री के अभाव में चिन्तन को क्रियान्वित नहीं किया जा सका। सन् २००० में हमने लाडनूं में चातुर्मासिक प्रवास किया। वहां जैन विश्व भारती में उपयुक्त सामग्री उपलब्ध हो गई। कोश के कार्य को प्रारम्भ करने का नए सिरे से संकल्प किया। ____ गुरुदेव की इच्छा थी कि कोश का निर्माण अंग्रेजी भाषा में हो। किन्तु डॉ. टाटिया का स्वर्गवास हो चुका था इसलिए कोश को हिन्दी में संपादित करने का संकल्प किया। एक बहुत ही महत्त्व का प्रसंग बना कि युवाचार्य महाश्रमण इस कार्य के साथ निष्ठा के साथ जुड़ गए । कोश का कार्य आगे बढ़ा । सन् २००१ के बीदासर चातुर्मासिक प्रवास के बाद पुनः अहिंसा यात्रा शुरु हो गई। उस दौरान कार्य कभी तेज व कभी धीमी गति से चला। सन् २००५ रतनगढ़ प्रवास में साध्वी विश्रुतविभा के सुझाव पर चिन्तन हुआ और यह निर्णय किया कि कोश हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में होना चाहिए। अंग्रेजी अनुवाद का दायित्व मुनि महेन्द्रकुमारजी को दिया गया। उन्होंने निष्ठा अरै तत्परता के साथ इस कार्य को संपादित किया। हम कभी तेज गति से चले और कभी चीटी की चाल चले। प्रसन्नता है कि हम लक्ष्य तक पहुंच गए और कोश का कार्य संपन्न हो गया। कोश निर्माण : व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत कोश में प्रयुक्त ग्रन्थसूची से यह स्पष्ट हो रहा है कि इसमें श्वेताम्बर और दिगम्बर–दोनों परम्पराओं के मौलिक श्रुत का बिना किसी पक्षपात उपयोग किया गया है। आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग समवायांग, भगवती, उपासकदशा, प्रश्नव्याकरण, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नन्दी, अनुयोगद्वार, प्रज्ञापना, औपपातिक, निशीथ, कल्प, दशाश्रुतस्कन्ध, व्यवहार, आवश्यक आदि आगम-श्रुत तथा इन पर लिखित व्याख्या ग्रन्थ-नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति आदि श्वेताम्बर परम्परा के मौलिक ग्रन्थ जहां एक ओर आधार बने हैं वहीं दूसरी ओर षट्खण्डागम, समयसार, गोम्मटसार, आलाप पद्धति, बृहद्र्व्यसंग्रह, ज्ञानार्णव आदि तथा इन पर लिखित व्याख्या ग्रन्थ (धवला एवं अन्य टीकाएं) भी उसी रूप में आधार बने हैं। तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके व्याख्या-ग्रन्थ स्वोपज्ञ भाष्य, भाष्यानुसारिणी टीका, सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक आदि का प्रयोग प्रचुर रूप में हुआ है। प्रवचनसारोद्धार, कर्मप्रकृति, पंचसंग्रह, तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार आदि अनेक उत्तरकालीन प्राचीन ग्रन्थों तथा जैनसिद्धान्तदीपिका, मनोनुशासनम् आदि अर्वाचीन ग्रन्थों का यथेष्ट उपयोग हुआ है। जैन न्याय ग्रन्थों में सन्मतितर्क, प्रमाण मीमांसा, नयचक्र, आप्तमीमांसा, स्याद्वादमंजरी, भिक्षुन्यायकर्णिका आदि प्रमुख कृतियां यत्र-तत्र सर्वत्र प्रयोग में आई हैं। विस्तृत जानकारी हेतु ‘प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची' द्रष्टव्य है। जैन दर्शन आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी दर्शन है।३२ उसमें अस्तित्व का तात्त्विक वर्णन और तात्त्विक मीमांसा की गई है। तत्त्वमीमांसा के लिए प्रयुक्त शब्द लौकिक व्यवहार में प्रयुक्त होने वाले शब्दों में भिन्न हैं और रहस्यपूर्ण अर्थ वाले हैं। उनको समझने के लिए पारिभाषिक शब्दकोश का निर्माण किया गया है। brary.org

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