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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
पास संयम स्वीकार करता है तथा उत्कृष्ट तप की आराधना करता है। उसके बाद वह भिक्षु-प्रतिमा की साधना करता है और अट्ठाईस मास तथा तेबीस दिन में प्रतिमा की साधना पूर्ण कर गुणरत्न-संवत्सर तप की आराधना करता है। अन्त में जब गौतम अणगार का शरीर क्षीण हो गया 'जीवं जीवेइ चिठ्ठइ' जीव अपनी जीवनी-शक्ति के सहारे ही टिका हुआ था। तब उन्होंने मृत्यु की इच्छा न करते हुए और न जीने की कामना करते हुए एक मास का संथारा किया तथा सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हए। गौतम अनगार तप की जीती-जागती प्रतिमा थे। उनका जीवन अत्यन्त प्रेरणादायी है।
अणीयसेन आदि छह भाई
अन्त कृद्दशा वर्ग तीसरे अध्ययन प्रथम में वर्णन है कि भद्दिलपुरनगर में नाग गाथापति की धर्मपत्नी सुलसा अत्यन्त रूपवती थी। उसके अणीयसेन, अनन्तसेन, अजितसेन, अनहितरिपु, देवसेन तथा शत्रुसेन ये छह पुत्र थे। उन छहों ने भगवान् अरिष्टनेमि के उपदेश को श्रवण कर प्रव्रज्या ग्रहण की । यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि ये छहों भाई देवकी के गर्भ से संहरण कर सुलसा की कुक्षि में स्थापित किये गये थे। इन छहों भाइयों ने उत्कृष्ट तपःसाधना कर मुक्ति को वरण किया था। ये छहों श्रीकृष्ण वासुदेव के भाई थे। इस रहस्य का उद्घाटन भगवान् अरिष्टनेमि ने किया । वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में यह घटना उपलब्ध नहीं है। गजसुकुमाल
अन्तकृद्दशा वर्ग तीसरे अध्ययन आठवें में गजसुकुमाल मुनि का वर्णन आया हैं । जैन संस्कृति के इतिहास में गजसूकूमाल एक अद्भत साधक हुए । वह क्षमा का देवता विराट् शक्ति का धनी था। जिसे प्राप्त करने के लिए श्रीकृष्ण ने तप की साधना की। जिसका बाल्यकाल स्वर्ण महलों में गुजरा। जिसका शरीर मक्खन की तरह सुकोमल था, जिसने अपने जीवन में दुःख की दुपहरी का दारुण दृश्य नहीं देखा था। तीन खण्ड के अधिपति श्रीकृष्ण का वह लघुभ्राता था । भगवान् अरिष्टनेमि द्वारिका नगरी के उद्यान में पधारे । श्रीकृष्ण के साथ गजसुकुमाल भी भगवान् को वन्दन करने के लिए पहुँचे । श्रीकृष्ण ने मार्ग में सोमा के तुहावने सुरूप को देखा तो उसे राजप्रासाद में भिजवा दिया। अरिष्टनेमि के पावन उपदेश को श्रवण कर गजसुकुमाल का अन्तर्मानस वैराग्य से भावित हो गया।
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