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आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ३६३ मूला सारोपा की भित्ति पर रूपक का प्रासाद विनिर्मित होता है, और सादृश्यमूला साध्वसाना की दीवालों पर, अतिशयोक्ति का भवन बनता है। क्योंकि, सारोपा लक्षणा, विषय और विषयी को, यानी उपमान और उपमेय को, एक ही धरातल पर खड़ा कर देती है। जबकि साध्यवसाना लक्षणा, विषय में विषयी का, अर्थात् उपमान में उपमेय का अन्तर्भाव करा देती है । अरूप में रूप को पाने को शैली का, यही आधारभूत सिद्धान्त है।
___ अमूर्त को मूर्त बनाने के काव्य-शिल्प का बीजरूप सङ्केत, बृहदारण्यक उपनिषद् के उद्गीथ ब्राह्मण में, और छान्दोग्योपनिषद् में भी एक रूपकात्मक आख्यायिका के रूप में मिलता है। श्रीमद् भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय में पुण्य और पापरूपी वृत्तियों का उल्लेख, दैवी तथा आसुरी सम्पत्ति के रूप में किया गया है । बौद्ध साहित्य में जातक, निदान कथा के 'अविदूरे निदान' की मार-विजय सम्बन्धी आख्यायिका और 'सन्तिके निदान' की अजपालवादि के नीचे वाली आख्यायिका में, अरूप. को रूपमय बनाने के शैली-शिल्प का दर्शन होता है ।
जैन साहित्य में, अनेकों छोटे-मोटे आख्यान रूपक शैली में मिलते हैं। जिनमें 'सूत्रकृताङ्ग' 'उत्तराध्ययन' और 'समराइच्चकहा' के कुछ रूपक विशेष उल्लेखनीय हैं । उदाहरण के लिये :--
एक सरोवर है। उसमें, जितना अधिक पानी भरा है, उससे कम कीचड़ नहीं है। सरोवर में अनेकों श्वेतकमल विकसित हैं। इन सब के. मध्य में, एक विशाल पुण्डरीक विकसमान है। इसके मनोहारी स्वरूप को देखकर, पूर्व दिशा से एक व्यक्ति आता है और उस पुण्डरीक को तोड़कर अपने साथ ले जाने के लिये, सरोवर में घुस जाता है। यह व्यक्ति, उस पुण्डरीक तक पहुँचे, इसके काफी पहिले, वह तालाब में भरे कीचड़
१. एवं च गौण-सारोपालक्षणासंभवस्थले रूपकम्, गौणसाध्यवसानलक्षणा संभव
स्थले त्वतिशयोक्तिरिति फलितम् । – काव्यप्रकाश-वामनीटीका-पृष्ठ-५६३ २. सारोपाऽन्या तु यत्रोक्तौ विषयी विषयस्तथा । ___--काव्यप्रकाश-भण्डा० ओरि० रि० इं० पूना, पृष्ठ-४७ ३. विषय्यन्तःकृतेऽन्यस्मिन् सा स्यात् साध्यवसानिका ।
-वही-पृष्ठ-४८ ४. उद्गीथ ब्राह्मण-१/३
५. छान्दोग्योपनिषद्-१/२
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