Book Title: Jain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 413
________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ३६७ इन पांच स्थावरों में यह जीव असंख्यात और अनन्त काल तक रहा है। वहाँ पर उसने विविध प्रकार के दारुण कष्ट सहन किये हैं । जैन दर्शन की यह महत्वपूर्ण विशेषता रही है कि उसने इन पाँचों में जीव मानकर उनका विश्लेषण किया है और उन स्थानों पर जीव ने किस-किस प्रकार की यातनाएँ सहन की, उसका सजीव चित्रण आचार्य सिद्धर्षि ने प्रस्तुत ग्रन्थ में किया है। जब इस वर्णन को प्रबुद्ध पाठक पढ़ता है तो वह चिन्तन करने के लिए बाध्य हो जाता है कि मेरी आत्मा ने मिथ्यात्व अवस्था में किस प्रकार इस संसार की यात्रा की है, चिरकाल तक कष्टों में झुलसने के पश्चात् अनन्त पुण्यवाणी का पुञ्ज, जब जीवात्मा ने एकत्र किया तब वह एकेन्द्रिय से द्वीन्द्रिय बना, स्थावर से त्रस बना । एके न्द्रिय अवस्था में केवल एक स्पर्शेन्द्रिय थी, उसमें अन्य इन्द्रियों का अभाव था। एकेन्द्रिय अवस्था में स्पर्शन, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण होते हैं। निगोद तो जीवों का खजाना है। उसमें इतने जीव हैं, जितने अन्य जीव-योनियों में नहीं हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में जो व्यवहार राशि और अव्यवहार राशि का उल्लेख हुआ है, वह दार्शनिक युग की देन है, आचार्य सिद्धर्षि गणी तक यह कल्पना वर्णन की दृष्टि से मूर्तरूप ले चुकी थी। अनेक श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्य उस पर अपनी लेखनी चला चुके थे। इसलिए आचार्य सिद्धर्षि ने भी उनका अनुसरण कर व्यवहार राशि एवं अव्यवहार राशि का सजीव वर्णन प्रस्तुत किया है। यदि पाठक-गण मूल ग्रन्थ का पारायण करेंगे तो उन्हें ज्ञानवर्द्धक विपुल सामग्री प्राप्त होगी। हम पूर्व में लिख चुके हैं कि अनन्त पुण्यवाणी के पश्चात् द्वीन्द्रिय अवस्था को, जीव प्राप्त करता है । द्वीन्द्रिय अवस्था में स्पर्शन और रसन्-ये दो इन्द्रियाँ उसे प्राप्त होती हैं । द्वीन्द्रिय अवस्था में चारों प्रकार के कषाय और आहार आदि चारों प्रकार की मंज्ञाएँ होती हैं। वे आत्माएँ सम्मुर्छ. नज होती हैं। असंज्ञी और नपुंसक होती हैं । पर्याप्ति और अपर्याप्ति के भेद से वे प्रकार की होती हैं । जोवाजीवाभिगम', प्रज्ञापना, और मूलाचार में द्वीन्द्रिय जीवों के नामों की सूची दी गई है। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, १ जीवाजीवाभिगम, १/२२ २ प्रज्ञापना १/४४ ३ मूलाचार ५/२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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