Book Title: Jain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 439
________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ४२३ ड़िया ने सविस्तृत प्रस्तावना भी लिखी, जो "सिद्धर्षि" ग्रन्थ के नाम से स्वतन्त्र रूप से प्रकाशित हुई है । यह प्रकाशन सन् १९३६ में हुआ । प्रस्तावना में कापड़िया की प्रकृष्ट प्रतिभा के संदर्शन होते हैं। प्रतिभावान लेखक ने सरल और सुबोध भाषा में उपमिति-भव-प्रपंच कथा के रहस्य को उद्घाटित किया है, यह अद्भुत है, अनुपम है । प्रस्तावना क्या है, एक शोध प्रबन्ध ही है, सिद्धर्षि पर । उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा का संक्षिप्त हिन्दी सार श्री कस्तूस्मल बांठिया ने तैयार किया जो सन १९८२ में "बांठिया फाउन्डेशन," कानपुर से प्रकाशित हुआ है, पर उस संक्षिप्त सार में मूल कथा का भाव भी पूर्ण रूप से उजागर नहीं हो सका है। एक बात और मैं निवेदन करना चाहूँगा, वह यह है कि यह ग्रन्थ रत्न भारती-भण्डार का श्रृंगार है। इस ग्रन्थ रत्न में मूर्धन्य मनीषी लेखक ने चिन्तन के लिये विपूल साम्रग्री प्रदान की है। इसमें एक नहीं, अनेक ऐसे शोध-बिन्दु हैं, जिन पर शताधिक पृष्ठ सहज रूप से लिखे जा सकते हैं। मेरा स्वयं का विचार ग्रन्थ में आए हुए चिन्तन-बिन्दुओं पर तुलनात्मक व समीक्षात्मक दृष्टि से लिखने का था, पर, दिल्ली के भीड़ भरे वातावरण में यह सम्भव नहीं हो सका । एक के पश्चात् दूसरा व्यवधान आता गया और प्रस्तावना लेखन में आवश्यकता से अधिक विलम्ब भी होता गया। अतः मैंने अन्त में यही निर्णय लिया कि प्रस्तावना अतिविस्तार से न लिखकर संक्षेप में ही लिखी जाय। उस निर्णय के अनुसार मैंने संक्षेप में प्रस्तावना लिखी है। मैं सोचता हूँ कि यह प्रस्तावना प्रबुद्ध पाठकों को पसन्द आएगी और शोधार्थियों के लिये कुछ पथ-प्रदर्शक भी बनेगी। आज भौतिकवाद के युग में मानव भौतिक चकाचौंध में अपने आप को भूल रहा है। स्वदर्शन को छोड़कर प्रदर्शन में उलझ रहा है । ऐसी विकट वेला में आत्मदर्शन की पवित्र प्रेरणा प्रदान करने वाला यह ग्रन्थ सभी के लिए आलोक स्तम्भ सिद्ध होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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