Book Title: Jain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 437
________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ४२१ का असर होने लगा। फलतः कुछ ही दिनों बाद, उन्होंने बौद्ध-दीक्षा भी ले ली । जब, बौद्धों ने उन्हें अपना गुरु-पद देने का निश्चय किया, तो उन्हें अपनी प्रतिज्ञा याद आ गई और अपना वेष वापिस करने जाने के लिए समय मांगा। सिद्धर्षि की इस ईमानदारी ने उनके बौद्ध गुरु को प्रसन्न कर दिया। उन्होंने भी आज्ञा दे दी। सिद्धर्षि, जब अपने जैन दीक्षा गुरु के सामने पहुंचे तो उन्हें वन्दन नहीं किया और यों ही सामने जाकर खड़े हो गये। सिद्धर्षि के गुरु गर्गर्षि, उसका बौद्ध वेष देखकर दुःखी हुए, और सिद्धर्षि ज्ञान-गर्व का अनुमान भी लगा बैठे। फलतः युक्ति से काम बनाने की इच्छा से, वे उठे और सिद्धर्षि को, 'ललित-विस्तरा' ग्रन्थ देकर बोले'इस ग्रन्थ को देखो, तब तक मैं चैत्यवन्दन करके आता हूँ।' इतना कहकर, अन्य साधुओं के साथ वे चले गये। सिद्धर्षि, ज्यों-ज्यों उस ग्रन्थ को पढ़ते गये, त्यों-त्यों उन्हें अपने किये पर पश्चात्ताप होने लगा । और, जब तक गर्गर्षि वापिस लौटे, तब तक, उनका भूला-भटका मन, सही रास्ते पर आ चुका था। सामने से आते गर्गर्षि को देखकर, वे अपने स्थान से उठे और उनके चरणों में गिर कर अपनी भूल की क्षमा याचना करते हुए, वापस अपने रास्ते पर आने की इच्छा प्रकट की। 'तू मेरे वचनों को याद रखकर, प्रतिज्ञा-पालन करने के लिए यहाँ वापस आ गया, फिर तेरे जैसे विद्वान् शिष्य को वापस पाकर किस गुरु को प्रसन्नता न होगी ?' गुरु के वचन सुन कर सिद्धर्षि का मन प्रसन्न हो गया। गुरु ने उन्हें प्रायश्चित्त दिया और अपने पद पर बैठा कर, साधना की प्रेरणा प्रदान की। सिद्धर्षि ने, अपना दायित्व समझा और लोगों को बोध देने की भावना से इस 'उपमिति-भव-प्रपंच कथा' की रचना की । सिद्धर्षि की यह मूल्यवान् कृति, उनके विद्वत्तापूर्ण प्रदाय को, भारतीय जन-मानस में और भारतीय-साहित्यिक जगत में, उन्हें अविस्मरणीय बनाये रखने की पर्याप्त सामर्थ्य रखती है। इस महान् ग्रन्थ का सम्मान, सिर्फ भारत में ही नहीं, इंग्लैण्ड और फ्रान्स के विद्वानों में भी ख्याति अजित कर चुका है । पाठकगण. दमके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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