Book Title: Jain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 418
________________ ४०२ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा पराजित होने पर यदि वह सम्भल नहीं पाता तो पुनः वह उसी स्थिति को प्राप्त कर लेता है, जहां से उसने विजय-यात्रा प्रारम्भ की थी। अन्तरात्मा में पहुँचा हआ आत्मा भी पुनः बहिरात्मा बन जाता है। उसकी विकास यात्रा में बाधा समूत्पन्न करने वाले अनेक कर्म-शत्र ओं की प्रकृतियां रही हुई हैं। कभी कोई प्रकृति अपना प्रभाव दिखाती है, तो कभी कोई प्रकृति । हम पूर्व ही बता चुके हैं कि विकास यात्रा में अवरोध उत्पन्न करने वाला एक प्रमुख कारण कषाय है । कषाय जैन धर्म का एक पारिभाषिक शब्द है । 'कष' और 'आय' इन दो शब्दों के संयोग से 'कषाय' शब्द बना है। यहाँ पर 'कष' का अर्थ संसार है अथवा कर्म और जन्म-मरण है। *आय' का अर्थ लाभ है। जिससे जीव पुनः-पुनः जन्म और मरण के चक्र में पड़ता है---वह कषाय' है । कषाय आवेगात्मक अभिव्यक्तियाँ हैं । तीव्र आवेग को कषाय कहते हैं और मंद आवेग या तो आवेगों के प्रेरकों को नोकषाय कहते हैं। नोकषाय के हास्य, रति, अरति, भय, शोक, प्रभृति नौ प्रकार हैं। कषाय क्रोध, मान, माया और लोभ, चार प्रकार का है, और प्रत्येक कषाय के तीव्रतम, तीव्रतर, तोव और अल्प की दृष्टि से चारचार विभाग हैं । जब तीव्रतम क्रोध आता है, तो उस आत्मा का दृष्टिकोण विकृत हो जाता है, तीव्रतर क्रोध में आत्म-नियंत्रण की शक्ति नहों रहती, तीव्र क्रोध आत्म-नियंत्रण की शक्ति में बाधा समुत्पन्न करता है और मंद क्रोध वीतरागता उत्पन्न नहीं होने देता। क्रोध एक मानसिक उद्वेग है, उसके कारण मानव की चिन्तनशक्ति और तर्क-शक्ति कुण्ठित हो जाता है, जिससे उसे हिताहित का भान नहीं रहता। वह उस आवेग में ऐसे अकृत्य कर बैठता है, जिसका पश्चात्ताप उसे चिरकाल तक बना रहता है। क्रोध की उत्पत्ति सहेतुक और निर्हेतुक दोनों प्रकार से होती है। प्रिय वस्तु का वियोग होने पर जो क्रोध उभर कर आता है, वह सहेतुक क्रोध है। किसी बाहरी निमित्त के बिना केवल क्रोध वेदनीय पुद्गलों के प्रभाव से जो क्रोध उत्पन्न होता है, वह निर्हेतुक क्रोध है। भगवती सत्र में क्रोध के दो रूप बताये हैं-एक द्रव्य क्रोध और दूसरा भाव क्रोध । द्रव्य क्रोध से १ स्थानांग सूत्र १०/७ २ अपइट्ठिए कोहे-निरालम्बन एव केवलं क्रोधवेदनीयोदयादुपजायेत । -प्रज्ञापना, वृत्ति पत्र १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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