Book Title: Jain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 429
________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ४१३ कितने ही बौद्ध दार्शनिकों का अभिमत है कि मुक्त जीव जिस स्थान से मुक्त होता है, वह जीव उसी स्थान पर स्थिर होकर रह जाता है । उस जीव का किसी दिशा और विदिशा में गमन नहीं होता, और न वह जीव ऊपर या नीचे ही जाता है, क्योंकि मुक्त जीव में संकोच, विकास और गति आदि के कारणों का पूर्ण अभाव है। जैसे व्यक्ति सांकल से बंधा हुआ है, उस व्यक्ति को सांकल से मुक्त करने पर भी वह वहीं पर स्थिर रहता है, वही स्थिति मुक्त जीव की है । पर, जैन दार्शनिकों का अभिमत है कि, मुक्तात्मा एक क्षण भी मुक्त स्थल पर अवस्थित नहीं रहता, अपितु वह जिस स्थान पर मुक्त होता है, वहाँ से वह ऊर्ध्वगमन करता है। आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगमन का है । अधोलोक और तिर्यक लोक में जो गमन होता है, उसका कारण कर्म है, पर मुक्त जीव में कर्मों का अभाव होने से मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन ही करता है।4 ऊर्ध्वगमन का तात्पर्य यह नहीं कि वह निरन्तर ऊर्ध्वगमन ही करता रहे, जैसा कि माण्डलिक मतावलम्बियों का अभिमत है। जैन दृष्टि से मुक्त जीव लोक के अन्तिम भाग तक ही ऊर्ध्वगमन करता है। आगे धर्मास्तिकाय द्रव्य का अभाव होने से वह वहीं पर स्थित हो जाता है। कितने ही दार्शनिक यह भी मानते हैं-मुक्त जीव जब देखते हैं कि संसार में धर्म की हानि हो रही है और अधर्म का प्रचार बढ़ रहा है तो धर्म की संस्थापना हेतु वे मोक्ष से पूनः संसार में आते हैं 16 सदाशिववादियों का मन्तव्य है कि सौकल्प (१०० कल्प) प्रमाण समय व्यतीत होने पर संसार जीवों से शून्य हो जाता है, तब मुक्त जीव पुनः संसार में आते हैं। जब कि जैन दर्शन का मन्तव्य है-जीव ने एक बार भावकर्म और द्रव्य-कर्म का पूर्ण विनाश कर दिया और मुक्त बन गया, वह १ (क) सर्वार्थसिद्धि १०/४; पृष्ठ ३६० (ख) अश्वघोष कृत, सौन्दरानन्द २ द्रव्यसंग्रह टीका, गाथा १४ ३ उत्तराध्ययन ३६/५६-५७ ४ द्रव्यसंग्रह टीका, गाथा १४, ३७ ५ तत्त्वार्थसूत्र १०/८ ६ (क) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, जीव प्रबोधिनी टीका गाथा ६६ (ख) स्याद्वादमञ्जरी पृष्ठ ४२ ७ (क) द्रव्यसंग्रह, गाथा १४, पृष्ठ ४० (ख) स्याद्वादमञ्जरी, कारिका २६ (ग) मुण्डकोपनिषद ३/२.६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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