Book Title: Jain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 420
________________ ४०४ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा सकती है। इसी सत्य को तथागत बुद्ध ने और महर्षि व्यास ने भी स्वीकार किया है। कषायों का नष्ट हो जाना ही भव-भ्रमण का अन्त है, इसीलिए एक जैनाचार्य ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा है-'कषायमूक्तिः किल मुक्तिरेव'कषायों से मुक्त होना हो वास्तविक मुक्ति है। सूत्रकृतांग से स्पष्ट शब्दों में कहा गया है-क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार महादोषों को छोड़ने वाला ही महर्षि, न तो पाप करता है और न करवाता है। तथागत बुद्ध ने कहा कि जो व्यक्ति राग, द्वष आदि कषायों को बिना छोड़े कषाय वस्त्रों को अर्थात् संन्यास धारण करता है तो वह संयम का अधिकारी नहीं है। संयम का अधिकारी वही होता है, जो कषाय से मुक्त है । जिसके अन्तमानस में क्रोध की आँधी आ रही हो, मान के सर्प फुत्कारें मार रहे हों, माया और लोभ के ब वण्डर उठ रहे हों, राग और द्वष का दावानल धं-धं कर सलग रहा हो, वह साधना का अधिकारी नहीं है; साधना का वही अधिकारी है जो इन आवेगों से मुक्त है। इसीलिए प्रस्तुत कथानक में यह बताया गया कि आत्मा कभी क्रोध के वशीभूत होकर, कभी मान के कारण और कभी माया से प्रभावित होकर, अपने गन्तव्य मार्ग से विस्मत होती रही है। प्रबल पुरुषार्थ से उसने कषायों पर विजय प्राप्त की, पर उसके बाद भी कभी वेदनीय ने उसके मार्ग में बाधा उपस्थित की, तो कभी ज्ञानावरणीय कर्म ने उसकी प्रगति में प्रश्नचिह्न उपस्थित किया। उसकी गति में यति होती रही । एक-एक कर्म-शत्रओं को परास्त कर वह आगे बढ़ा, यहाँ तक कि उसने मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशमन कर वीतरागता ही प्राप्त कर ली। किंतु, पुनः उसका ऐसा पतन हुआ कि ग्यारहवें गुणस्थान से प्रथम गुणस्थान में पहुँच गया। जहां से उसने विकास यात्रा प्रारम्भ की थी, पुनः उसी स्थिति को प्राप्त हो गया। पर उस आत्मा ने पुरुषार्थ न छोड़ा, 'पुनरपि दधिदधिनी' की उक्ति को चरितार्थ करता रहा। ___आचार्य सिद्धर्षि गणी ने इन तथ्यों को कथा के माध्यम से प्रस्तुत कर साधकों के लिए पथ-प्रदर्शन का कार्य किया है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से १ दशवकालिक ८/३६ ३ महाभारत, उद्योग पर्व, २ धम्मपद २२३ ४ सूत्रकृतांग १/६/२६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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